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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रवचन साहित्य
जिस प्रकार महासती पुष्पवतीजी का निबन्ध साहित्य चिन्तन की अपूर्व धरोहर है उसी प्रकार आपका प्रवचन साहित्य भी विचारों का अनमोल खजाना है । वे एक सौम्य और प्रबुद्ध विचारिका
ल, प्रतिक्षण अपनी साधना एवं चिन्तन का अनमोल अर्ध्य जन-जन को समर्पित करती हैं। उनके विचारों में मौलिकता है, चिन्तन की गहराई है तथा विकृति को नष्ट करने की अपूर्व क्षमता है । विश्व की अनेक गम्भीर समस्याओं को वे अपने गहन अध्ययन के द्वारा सुलझाती हैं । जब वे प्रवचन करती हैं तो ऐसा प्रतीत होता है, साक्षात् सरस्वती-पुत्री की वाग्धारा प्रस्फुटित हो रही है।
__ वे जैन परम्परा में पली-पुषी साध्वी हैं । जैन दर्शन का गम्भीर अध्ययन है । इसलिए जैन दार्शनिक पहलुओं को तन्मयता के साथ छूती है । साथ ही अन्य धर्म और दर्शनों के प्रति वे उदार दृष्टिकोण के साथ चिन्तन करती हैं। उनमें सम्प्रदाय-विशेष का आग्रह नहीं, किन्तु सत्य का आग्रह मुख्य रूप से रहा हुआ है । उन्होंने बड़ी तन्मयता और सूक्ष्मता के साथ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद, ध्यान और योग आदि विविध विषयों पर गहराई से प्रकाश डाला है ।
"पुष्प-पराग' शीर्षक से उनका एक शानदार प्रवचन संकलन प्रकाशित हुआ है । उस संकलन को पढ़ने से सहज ही महासतीजी की बहुश्रुतता और सूक्ष्म प्रतिभा का सहज संदर्शन होता है। उनकी विमल वाणी में सरिता को सरस धारा की तरह प्रवाह है। न उसमें कृत्रिमता है, न घुमाव है और न शब्दों का आडम्बर ही है । जो है, वह सहज है।
अहिंसा-अहिंसा पर उन्होंने प्रवचन करते हुए कहा है-'अहिंसा की दो धाराएँ हैं । एक बाह्य अहिंसा और दूसरी आन्तरिक अहिंसा । अहिंसा का अन्तरंग रूप न हो तो अहिंसा की गति-प्रगति ठीक दिशा में हो रही है या नहीं ? इसका पता नहीं चल सकता। कषायों या राग-द्वेषादि के परिणाम जितने कम होते है, उतनी-उतनी अहिंसा सीधी दिशा में गति-प्रगति कर रही है, यह समझना चाहिए। क्योंकि कषायों या राग-द्वेष आदि विकारों में जितनी न्यूनता होगी, उतनी ही अधिक तीव्र गति वाय अहिंसा में होती जायेगी। अगर कषायों या राग-द्वेषादि में न्यूनता नहीं होगी तो चाहे बाह्य अहिंसा की २फ्तार तेज हो जाए, वह गलत दिशा में समझी जायेगी।
सेवाव्रत-भारत के मुर्धन्य मनीषियों ने सेवा के संबंध में बहुत गहराई से चिन्तन किया है । और कहा है- 'सेवा-धर्म बहुत ही गहन है । बड़े-बड़े योगीगण भी उस पथ पर चलते समय कतराने लगते हैं । सेवा मानव का महत्त्वपूर्ण गुण है । उस गुण पर चिन्तन करती हुई महासतीजी ने कहा है। "आत्मा के सर्वांगीण गुणों के विकास के लिए सेवा अनिवार्य साधना है, क्योंकि आत्मौपम्य की भावना, दूसरे के प्रति सद्भाव, दूसरे के व्यक्तित्व का आदर, समस्याओं को सुलझाने में दूसरे के प्रति स्नेह, सहयोग और समर्पण ये सब सेवा के रूप हैं। जैसे अपने से पिछड़े, पीडित, दुःखी, रुग्ण एवं आत व्यक्तियों के दुःख को अपना दुःख समझकर उसे मिटाने के लिए प्रयत्न करना सेवा है, वैसे ही अपने से गुणों में श्रेष्ठ एवं पूज्य व्यक्तियों के ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उन्नति में सहयोग देना, उनके आदर्शों को यत्किचित्रूप में भी अपने जीवन में उतारना और उनके प्रचार-प्रसार में सहयोग देना भी सेवा है। ज्ञानवृद्धि, सामूहिक उत्कर्ष, दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन जैसे शुभ कार्यों में संलग्न व्यक्तियों तथा संस्थाओं का पोषण करना भी श्रेष्ठ सेवा है । इसमें सहयोग देना सेवा-धर्म का उचित मार्ग है।"
सजनधर्मी प्रतिभा की धनी : महासती पुष्पवतीजी | २०६
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