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साध्वारत्नपुष्पवती भिनन्दन ग्रन्थ
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जनता जनार्दन की तीव्र इच्छा आपके पावन प्रवचनों को सुनने के लिए रहती। पर स्वास्थ्य के कारण आधा घण्टा, पौन घण्टा और कभी एक घण्टा आप प्रवचन करतीं।
विक्रम संवत २००७ (सन् १९५०) में श्रद्धय गुरुदेवश्री का वर्षावास नान्देशमा गाँव में था। उस वर्षावास में महासतीजी ने गुरुदेवश्री की सेवा में रहकर आगम साहित्य का परिशीलन किया।
विक्रम संवत २०१० (सन् १९५३) का वर्षावास जयपुर में हुआ। उस समय भी श्रद्धय गुरुदेव श्री का वर्षावास जयपुर में था। डॉक्टरों की राय थी कि सिर-दर्द के लिए उपचार बहुत ही आवश्यक है । अतः गुरु-चरणों में रहकर उपचार करवाया। उपचार हेतु जयपुर में लम्बे समय तक अवस्थिति रहीं।
विक्रम संवत २०११ (सन् १९५४) में भी उपचार हेतु जयपुर में ही ठहरना पड़ा। उस वर्षावास में श्रमण-संघ के सहमंत्री आदरणीय श्री हस्तीमलजी म. सा० का वर्षावास जयपुर में था। उस वर्षावास में श्रद्धेय महाराजश्री के प्रवचन, शास्त्र-श्रवण करने को मिला। महाराजश्री के अगाध आगमिक ज्ञान को सुनकर हृदय आनन्द से झूमने लगता था।
अध्ययन, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन के लिए संवत २०१६ (सन १९६२) में जोधपूर घोडों के चौक में, विक्रम संवत २०२१ (सन् १९६४) में पीपाड़, संवत २०३० (सन् १९७३) में अजमेर, संवत २०३७ (सन १६८०) में उदयपुर, संवत २०३६ (सन् १९८२) जोधपुर और संवत २०४० (सन् १९८३) में मदनगंज (किशनगढ़) के चातुर्मास गुरुदेव श्री के सान्निध्य में हुए। इन सभी चातुर्मासों में आगम और उसके व्याख्या साहित्य का और जैन दार्शनिक ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन किया। साथ ही विभिन्न विचार गोष्ठियों, शिविरों आदि के माध्यम से आप जन-जीवन में विचार जागृति करती रहीं । आपश्री की मुख्य रुचि थी--जहाँ भी चातुर्मास हो, महिलाओं एवं बालकों में ज्ञानवृद्धि, धार्मिक साधना को नियमित क्रम एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाना।
__सभी चातुर्मास काल की विस्तृत गतिविधि की चर्चा करने से लेख बहुत बड़ा बन जायेगा अतः यहाँ किशनगढ़ चातुर्मास एवं तत्पश्चात् के कुछ महत्त्वपूर्ण चातुर्मासों की जानकारी प्रस्तुत कर रही हूँ।
महासती पुष्पवती जी ने लधुवय में संयम-साधना की ओर अपने मुस्तैदी कदम बढ़ाए और उस कदम बढ़ाने में माता जी म० प्रभावती जी का अपूर्व सहयोग उन्हें मिला। संयम-साधना में निरन्तर अग्रसर बने इसी भावना से उत्प्रेरित होकर माँ का हार्दिक वात्सल्य उन्हें मिलता रहा। चाहे प्रवचन हो, चाहे दार्शनिक व धार्मिक चर्चाएँ हों, चाहे वार्तालाप हो, सभी कार्य में वे ढाल बनकर उनका संर करती रही । पहले सद्गुरुणी जी और उसके पश्चात् माताजी के भरोसे साध्वीरत्न पूष्पवतीजी सदा निश्चिन्त रहीं। वि० सं० २०३८ में जब माँ की वात्सल्यमयी छाया यकायक उठ गई तो उनका अन्तर्मानस अत्यधिक व्यथित हो उठा । क्योंकि मानव की धरती पर माँ की ममता से बढ़कर अन्य कोई भी ममता का केन्द्र नहीं । महासती पुष्पवती जी के हदय में अपनी पूज्या एवं साध्वी माता के प्रति अगाध आस्था, अतीव श्रद्धा और जीवन के कण-कण में अपार भक्ति भावना थी। उनके स्वर्गवास से मन व्यथित होना स्वाभाविक था। इसीलिए आपका संवत् २०३८ का वर्षावास सद्गुरुदेव के सान्निध्य में जोधपुर सम्पन्न हुआ। उस वर्षावास में पूज्य गुरुदेवश्री देवेन्द्रमुनिजी म० का स्वास्थ्य अस्वस्थ हो जाने से आपने मन में निश्चय किया कि जब तक लघु भ्राता का स्वास्थ्य ठीक न हो जाय तब तक गुरु चरणों में रहने की आपने गुरुदेवश्री से अभ्यर्थना की।
१९४ द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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