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________________ सावारत्नपुष्पवता भिनन्दन ग्रन्थ ... . ...lman श्री घासोलाल जी म० आगे कुछ नहीं कह सके। वे मन ही मन सोचते रहे कि सोहनकवरिजी Ed की शिष्याएँ अध्ययन करने में कुशाग्र हैं। जिस सिद्धान्तकौमुदी को मैंने अनेक वर्षों में पूर्ण की उसे - इन्होंने एक वर्ष में पूर्ण कर परीक्षा भी दे दी और प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण हुई है। यदि इस प्रकार विकास करती रहीं तो सन्तों की क्या स्थिति होगी ? उन्हें कौन पूछेगा ? आदि प्रश्न उनके मन में कौंधते रहे। विकट शिरोवेदना संवत २००५ (सन् १९४८) में महासती पुष्पवतीजी उदयपुर विराज रही थीं। यकायक सिर में भयंकर दर्द आरम्भ हुआ। चिकित्सकों को दिखाया गया। किन्तु वे रोग का निदान न कर सके। सिर में वेदना इतनी भयंकर और असह्य थी कि पढ़ना-लिखना सभी छोड़ना पड़ा । एकान्त और शान्त स्थान पर बैठकर समभाव से वे व्यथा को सहन करतीं। वह शिरोवेदना एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, महीने और दो महीने नहीं किन्तु नौ वर्ष तक लगातार चलती रही । विहार करते हुए गुरुणी जी म० के साथ मन्दसौर, इन्दौर, कोटा, जयपुर, अजमेर आदि के बड़े-बड़े चिकित्सकों को दिखाया गया पर कोई किसी निदान पर नहीं पहुंचा। महासती पुष्पवतीजी उस भयंकर वेदना में भी सदा प्रसन्न रहतीं और मन में सोचतीं कि मेरे पूर्वबद्ध कर्मों का उदय काल परिणाम हैं। यदि मेरे मन में किंचित् मात्र भी विषम भाव आ गया तो नया कर्मवन्धन हो जाएगा। जब मेरी आत्मा ने हँस-हँस कर कर्म बाँधा है तो भोगते समय क्यों कतराना ? इस प्रकार अतीव सहज, निर्मल, समतामय, निराकुल और निर्विकल्प मन से उस वेदना को सहन किया। और जव भी थोड़ी-सी व्यथा शान्त होती तब वे स्वाध्याय, ध्यान में तल्लीन हो जातीं। कर्मसिद्धान्त के प्रति उनके मन में अपूर्व निष्ठा थी। वे सोचती थीं कि एक दिन असातावेदनीय मिटेगा और सातावेदनीय का उदय होगा। मुझे वेदना से घबराना नहीं है। आत्मा तो वेदना से मुक्त । मुझे सदा आत्मभाव में रहना है । जहाँ न व्याधि है और न रोग ही है। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, निराकुल Et, अजर और अमर हूँ। आकस्मिक चक्ष वेदना . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . कहते हैं कि कौआ अकेला भोजन करने नहीं आता । वह अपने साथ अन्य संगी-साथियों को लेकर आता है । वैसे ही जब असाता वेदनीय कर्म का उदय होता है तो चारों ओर से होता है। महासती पुष्पवतीजी का पावन प्रवचन चल रहा था। श्रोता झूम-झूमकर प्रवचन रस का पान कर रहे थे । यकायक आँखों में भयंकर दर्द हुआ और एक आँख से दनादन पानी गिरने लगा। पुष्पवतोजी समझ ही नहीं सकी कि यह पानी क्यों गिर रहा है ? डॉक्टर भी उसका सही निदान नहीं कर सके। इधर पेट में भी दर्द होने लगा। वह दर्द कभी तीव्र और कभी मन्द रूप से चलता रहा। दर्द में भी वही समभाव, चेहरे पर वही मधुर मुस्कान । सिर और आँखों में दर्द के कारण पढ़ना कठिन हो गया था। उस समय का उपयोग उन्होंने जप-साधना और ध्यान-साधना में किया। कष्ट के दिन अन्ततः व्यतीत हए। कष्ट के दिनों में भी तन में व्यथा थी पर मन समाधिस्थ था। जब धीरे-धीरे व्यथा कम हई तो पूनः ज्ञान-साधना प्रारम्भ हई। किन्तु लम्बे समय की व्यथा थी। पूर्णतः मस्तिष्क खोई शक्ति अर्जित नहीं कर रहा था। वह शीघ्र ही थकान का अनुभव करता। जिससे जम करके कोई भी कार्य करने में दिक्कत होती थी। तथापि धैर्य के साथ थोडा-थोडा कार्य करतीं। एक बूद, जो गंगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १९३ www.al
SR No.012024
Book TitleSadhviratna Pushpvati Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDineshmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size25 MB
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