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साध्वारनपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
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वि. संवत २००३ (सन् १९४६) में आप अपनी गुरु बहिन महासती कुसुमवतीजी के साथ जैन न्याय और जैन आगमों की टीकाओं का अध्ययन करने के लिए ब्यावर जैन गुरुकुल में पधारी । तथा पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल आदि से गम्भीर अध्ययन किया। बारह मास तक वहाँ पर ठहरकर न्याय तीर्थ का अध्ययन सम्पन्न किया तथा जैन सिद्धान्ताचार्य तक का अध्ययन पूर्ण किया।
प्रकृष्ट प्रतिभा के कारण जिस किसी भी ग्रन्थ का आप पारायण करती वह स्मृति पटल पर अंकित हो जाता । आपकी स्मृति बहुत ही तेज थी। अध्ययन के साथ ही आपकी लेखन कला भी अपूर्व थी। आपने उस समय जैन दर्शन और जैन साहित्य पर उत्कृष्ट निबन्ध लिखें। साथ ही संस्कृत भाषा पर इतना अधिकार हो गया था कि धारा प्रवाह संस्कृत भाषा में प्रवचन कर लेती। बेकन ने ठीक ही लिखा है
रीडिंग मेक्स ए फुल मैन स्पीकिंग ए परफैक्ट मैन
राइटिंग एन एग्जैक्ट मैन अध्ययन मानव को पूर्ण बनाता है, भाषण उसे परिपूर्णता देता है और लेखन उसे प्रामाणिकता प्रदान करता है। तीनों ही दृष्टियों से पुष्पवतीजी का सारस्वत विकास प्रगति पर था।
एक कुटिल प्रश्न का सरल उत्तर आपकी प्रगति को देखकर कितने ही ईर्ष्यालु व्यक्ति जल-भुन रहे थे। पर उनका इतना सामर्थ्य नहीं था कि वे महासती सोहनकुंवरजी के सामने कुछ कह सके। इधर उदयपुर में प्रतिभा सम्पन्न आगम विद्या के पारगामी श्री घासीलालजी म० का पदार्पण हुआ। विरोधी तत्त्वों ने घासीलाल जी म० के कान भरे। घासीलालजी म० महासती मदनकुंवरजी को दर्शन देने हेतु जहाँ पर महासती जी विराज रही थी वहाँ पर पधारे । उस समय महासती कुसुमवती जी और पुष्पवतोजी दोनों पढ़ ही थीं। गुरुणीजी म० उनके पास में विराजी हुई थीं। और एक बहिन भी बैठी हुई थीं। घासीलाल जी म० ने महासती सोहनकुंवरजी से पूछा-क्या आपकी ये दोनों शिष्याएँ संस्कृत और प्राकृत पढ़ रही हैं ? मैंने सुना है कि इन्होंने सिद्धान्तकौमुदी पढ़ ली है। उन्होंने सिद्धान्त कौमुदी से संबंधित प्रश्न किये । महासती पुष्पवतीजी ने उन प्रश्नों का सटीक उत्तर दिया। उत्तर सुनकर उन्हें यह आत्मविश्वास हो गया कि ये साध्वियाँ प्रतिभासम्पन्न हैं । निडर भी हैं। तथापि विरोधी तत्त्वों ने जो कान भरे थे उससे उन्होंने महासती सोहनकंवरजी से कहा-अब आप इनको अधिक न पढ़ाएँ। क्य अधिक पढ़ेगी तो फिर आपकी आज्ञा में नहीं रहेगी । आदि अनेक बातें कहीं।
उत्तर में गुरुणीजी सोहनकुंवरजी ने कहा-महाराजश्री ! इसकी आपको चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं । मुझे तो आश्चर्य है कि आप जैसे विद्वान भी ऐसी बात करते हैं जबकि अनुभवी नीतिज्ञ कहता है-विद्या ददाति विनयं-विद्या से तो विनय आता है, विनय से विवेक बढ़ता है, फिर आप ऐसा विपरीत क्यों सोचते हैं ?
मैं इनको अच्छी तरह से जानती हूँ। यह अध्ययन कर जिनशासन दीपायेंगी। आपने जो कुछ कहा है वह अपने हृदय की पुकार से नहीं कहा । पर किसी के कहने से कहा है। मैं इतनी कान की कच्ची नहीं हूँ। मैं अपने कर्त्तव्य को अच्छी तरह से जानती हूँ। क्या पढ़ाना है और क्या नहीं पढ़ाना है ? इसका मुझे विवेक है। १६२ | द्वितीय खण्ड . व्यक्तित्व दर्शन
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