________________
SP साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
iiiiiiiiiiiiiiiiiii
विभोर हो उठे। कुछ दिन वहां रहकर उदयपुर चले आए। धन्नालाल ने मन में यह दृढ़ निश्चय किया कि मैं दीक्षा लूँगा तो इन्हीं गुरुदेव के पास लूगा ।
वर्षावास के पश्चात् धीरे-धीरे विहार कर गुरुणीजी सोहनकुंवरजी के साथ पुष्पवतीजी उदयपुर पहुंची । लम्बे समय तक उपचार करने से पुष्पवतीजी स्वस्थ हुई। पर पहले की तरह स्वास्थ्य सुधर नहीं सका । लम्बी बीमारी जाते-जाते भी अपने कुछ दूत छोड़ गई।
विक्रम संवत १९९६ (ईस्वी सन्१९३६) में वर्षावास उदयपुर में ही हुआ । स्वास्थ्य इतना अनुकूल नहीं था कि जमकर अध्ययन किया जा सके। उस वर्ष उदयपुर में स्थानकवासी परम्परा के दो तेजस्वी और प्रभावक मुनि प्रवरों के वर्षावास थे। पोरवाड़ों के पंचायती नोहरे में आचार्य श्री जवाह के पटधर युवाचार्य श्री गणेशीलालजी म० अनेक सन्तों के साथ वहां पर विराज रहे थे। तो ओसवालों के पंचायती नोहरे में जैनदिवाकर प्रसिद्धवक्ता श्री चौथमलजी म० अनेक शिष्यों के साथ विराज रहे थे। दोनों का उदयपुर की जनता पर प्रबल प्रभाव था। गणेशीलालजी म० के प्रवचनों में जैन बन्धुओं का प्राधान्य रहता था तो दिवाकरजी म० के प्रवचनों में छत्तीस ही कौम के श्रद्धालुगण उपस्थित होते थे। दोनों ओर प्रवचनों में हजारों की उपस्थिति होती थी। उदयपूर की भक्त नगरी में धर्म की रंग वर्षा हो रही थी।
महासतीजी श्री सोहनकुंवरजो म० आचार्य श्री अमरसिंहजी म० के सम्प्रदाय की थी। किन्तु उनका मानस सम्प्रदायवाद के संकीर्ण घेरे में आबद्ध नहीं था और न वे किसी एक पक्ष से बंधी हुई थीं। अतः वे दोनों ही स्थानों पर अपनी सुविधानुसार प्रवचन श्रवण करने के लिए पहुँचती । गणेशीलालजी म० और दिवाकरजी म. दोनों के अन्तर्मानस में महासतीजी के प्रति अपार स्नेह और सद्भावनाएँ थी। इस वर्ष महासती पुष्पवतीजी ने भी दोनों महापुरुषों के प्रवचन श्रवण का लाभ लिया।
वर्षावास के पश्चात् मन में यह दृढ़ संकल्प किया कि हमें गुरुदेव श्री के आदेशानुसार संस्कृत प्राकृत का गहराई से अध्ययन करना है। महासती श्री मदनकुंवरजीम० की शारीरिक स्थिति विहार करने की नहीं थी। इसलिए वे उदयपुर में ही स्थिरवास विराज रही थीं। उनकी सेवा में रहते हुए अध्ययन व्यवस्थित रूप से हो सकता था।
विद्याध्ययन में संलग्न उदयपुर में पाणिनीय व्याकरण के महामनीषी एक विद्वत्रत्न पंडितजी थे। उनके शिष्य रमाशंकर झा उनके पास अध्ययन करते थे। गुरुणीजी म० ने उनको अध्यापन के लिए नियुक्त किया। पं० रमाशंकरजी बहुत ही सीधे-सादे व चरित्रवान व्यक्ति थे । पढ़ाने की कला में दक्ष थे। जब वे अध्ययन करवाते तब श्रमण मर्यादा के अनुसार एक श्राविका और एक बड़ी साध्वी महासती श्री कुसुमवतीजी व पुष्पवतीजी के पास बैठती थीं। अध्ययन द्रुत गति से चल रहा था।
क्वीन्स कॉलेज वाराणसी से व्याकरण मध्यमा और साहित्य मध्यमा इन दोनों की सम्पूर्ण परीक्षाएँ एक-एक वर्ष में समुत्तीर्ण की। उसके पश्चात् हिन्दी साहित्य, मध्यमा और साहित्यरत्न की परीक्षाएँ समुत्तीर्ण की। प्रतिभा की तेजस्विता के कारण सभी परीक्षाओं में प्रथमश्रेणी प्राप्त हुई । व्याकरण और साहित्य के साथ दर्शन और जैनागमों का भी अध्ययन गहराई के साथ किया ।
वि० सं० १९६८ अषाढ़ में आपकी माताश्री ने महासती सोहनकुंवरजी के पास दीक्षा ली तथा भाई धन्नालाल ने उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी के पास संयम व्रत ग्रहण किया।
".
एक बूद, जो गगा बन गई : साध्वी प्रियदर्शना | १६१
www.jaineli