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साध्वारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ
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कोमल कली : काँटों से छिली __ महासती पुष्पवतोजी संवत १९६५ तदनुसार इस्वी सन् १९३८ के वर्षावास हेतु सलोदा पहुंची। सलोदा हल्दीघाटी के सन्निकट बसा हुआ बहुत छोटा-सा गाँव है। जहाँ पर स्थानकवासी समाज के २५३० घर थे । उन सबकी आर्थिक स्थिति बहुत ही साधारण थी। वे प्रायः खेती कर अपना जीवनयापन करते थे। उस समय वहाँ पर जौ और मकई का प्रचलन था। जौ की हथेली जितनी मोटी रोटी बनती थी। जिसमें तूष की प्रधानता थी । तूष काँटे की तरह गले में चुभता था। पाक-कला से अनभिज्ञ महिलाएँ थीं। उन मोटी रोटियों को बिना पूर्व अभ्यास के कोई खा नहीं सकता था। सब्जी का प्रयोग नहीं वत् था। केवल चटनी, उडद की दाल और कड़ी चाकी इनके अतिरिक्त कभी-कभार राबोड़ी और बड़ी या चने की दाल का उपयोग वे लोग करते थे। सायंकाल छाछ में मकई के दाने उबालकर राब तैयार करते । यही था उस समय वहाँ का खान-पान ।
___ महासती पुष्पवतीजी प्रथम बार ही उदयपुर छोड़कर गाँव में आई थी। पहले इस प्रकार का खान-पान न देखा था और न चखा था । पर समभाव से वे उसी आहार को थोड़ा बहुत करती। तथा पण्डितजी से संस्कृत का अध्ययन करती। यह सत्य है कि बिना आहार के शरीर लम्बे समय तक साथ नहीं देता। दो माह तक किसी प्रकार निकाले तीसरे माह वे भयंकर ज्वर से ग्रसित हो गई। न वहाँ पर वैद्य था और न डॉक्टर ही। जब ज्वर ने एक माह तक पीछा नहीं छोड़ा तो यह समझकर कि यह बड़ा निकाला (टाइफाइड) है। दो माह तक बिस्तर पर लेटी रही। पथ्य के नाम पर कोई वस्तु उपलब्ध नहीं थी । मरणासन्न स्थिति में देखकर सद्गुरुणीजी श्री सोहनकुंवरजी म० का धैर्य विचलित हो उठा । वे सोचने लगी। मैंने इन नव दीक्षिताओं के साथ यहाँ चातुर्मास कर ठीक नहीं किया । ये शहर की सुकुमार - बालिकाएँ यहाँ के नीरस आहार को कर नहीं पाती। तथा रुग्ण होने पर भी पथ्यादि साधन का अभाव है । यदि यह स्वस्थ हो जाये तो भविष्य में क्षेत्र को देखकर ही मैं वर्षावास का निश्चय करूंगी।
वेदना में समभाव भयंकर रुग्ण अवस्था में भी भेद-विज्ञान की साधिका महासती पुष्पवतीजी के अन्तर्मानस में समता का सागर लहलहा रहा था। वे सोच रही थी कि अब मेरा आयुष पूर्ण भी हो गया तो भी कोई बात नहीं। क्योंकि मैंने संयम मार्ग को स्वीकार कर लिया है।
वर्षावास के उपसंहार काल में तीजकुंवर भी हिम्मतनगर से उदयपुर आ गई और अपने प्यारे लाल धन्नालाल को लेकर सलोदा गुरुणीजी म० के दर्शन हेतु पहुंची । लम्बे उपचार के बाद भी तीजकुंवरि का हाथ ठीक नहीं हुआ था । पर पहले से उसमें सुधार था। रसी, मवाद निरन्तर चालू था। सामान्य घरेलू उपचार वे करने लगी थी। वहाँ पर पुष्पवतीजी की शारीरिक स्थिति देखकर उनके मन में विचार हुआ और गुरुणीजी से प्रार्थना की कि आप उदयपुर पधारकर वर्षावास के बाद उपचार करावें । गुरुणीजी ने कहा-अनेक गांवों का अत्यधिक आग्रह होने पर भी मैं इधर-उधर कहीं न जाकर सीधी
चूंगी और वहां पर इनकी चिकित्सा कराऊँगी। गांवों में तो कोई अच्छा अनुभवी वैद्य नहीं है। यहां तो नीम हकीम ही हैं । जिनका इलाज कराना खतरे से खाली नहीं होता।
तीजकुंवर अपने पुत्र के साथ कम्बोल पहुंची। जहाँ पर गुरुदेव श्री ताराचन्दजी महाराज का वर्षावास था। उस समय न तो सडकें थीं और न रास्ते ही सीधे थे। पहाडी, नदी-नालों को वह पार करती हुई, ऊँट की सवारी से कम्बोल पहुंची। गुरुदेव के प्रथम बार दर्शन कर माता पुत्र दोनों आनन्द
उदय
१९० | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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