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साध्वारत्नपुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थFAITHER
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(२) महासती प्रतापकंवरजी
यह भी उदयपुर राज्य के वीरपुरा ग्राम की थीं। (३) महासती पाटूजी
ये समदड़ी (राजस्थान) की थीं । इनके पति का नाम गोडाजी लुंकड था। वि० सं० १९७८ में इनकी दीक्षा हुई। (४) महासती चौथाजो
इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के बंबोरा ग्राम में थी और इनकी ससुराल वाटी ग्राम में थी। (५) महासती एजाजी
आपका जन्म उदयपुर राज्य के शिशोदे ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम भेरूलालजी और माता का नाम कत्थूबाई था । आपका पाणिग्रहण वारी (मेवाड़) में हुआ और वहीं पर महासती के उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की । वर्तमान में इनमें से चार साध्वियों का स्वर्गवास हो चुका है केवल महासती एजाजी इस समय विद्यमान हैं। उनकी कोई शिष्याएँ नहीं हैं। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक रही है।
महासती श्री नवलाजी की द्वितीय शिष्या गुमानाजी थीं। उनकी शिष्या-परम्पराओं में बड़े आनन्दकुंवरजी एक विदुषी महासती हुई । वे बहुत ही प्रभावशाली थीं। उनकी सुशिष्याएँ अनेक हुई, पर उन सभी के नाम मुझे उपलब्ध नहीं हुए। उनकी प्रधान शिष्या महासती श्री बालब्रह्मचारिणी अभयकुंवरजी हुई । आपका जन्म वि० सं० १९५२ फाल्गुन वदी १२ मंगलवार को राजवी के बाटेला गाँव (मेवाड़) में हुआ। आपने अपनी मातेश्वरी श्री हेमकुंवरजी के साथ महासती आनन्दकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर वि० सं०१६६० मृगशिर सूदी १३ को पाली-मारवाड़ में दीक्षा ग्रहण की । आपको शास्त्रों का गहरा अभ्यास था। आपका प्रवचन श्रोताओं के दिल को आकर्षित करने वाला होता था। जीवन की सान्ध्यवेला में नेत्र-ज्योति चली जाने से आप भीम (मेवाड़) में स्थिरवास रहीं और वि० सं० २०३३ के माघ में आपश्री का संथारा सहित स्वर्गवास हुआ।
आपश्री की दो शिष्याएँ हुई–महासती बदामकुंवरजी तथा महासती जसकुंवरजी। महासती बदामकुंवरजी का जन्म वि० सं० १९६१ बसन्त पंचमी को भीम गाँव में हुआ। आपका पाणिग्रहण भी वहीं हुआ और वि० संवत् १९७८ में विदुषी महासती अभयकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की। आप सेवाभावी महासती थी। सं० २०३३ में आपका भीम में स्वर्गवास हुआ।
महासती श्री जसकुंवरजी का जन्म वि. सं. १६५३ में पदराडा ग्राम में हुआ। आपने महासती श्री आनन्दकुंवरजी के पास सं० १९८५ में कम्बोल ग्राम में दीक्षा ग्रहण की और महासती श्री अभयकुंवरजो की सेवा में रहने से वे उन्हें अपनी गुरुणी की तरह पूजनीय मानती थीं। आप में सेवा की भावना अत्यधिक थी । सं० २०३३ में भीम में स्वर्गवास हुआ। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक चली। महासती श्री नवलाजी की तृतीय शिष्या केसरकुंवरजी थीं। उनकी सुशिष्या छगनकुंवरजी हुई।
एक ही प्रवचन से वैराग्य उदय महासती छगनकुंवरजी आप कुशलगढ़ के सन्निकट केलवाड़े ग्राम की निवासिनी थीं। लघुवय में ही आपका पाणिग्रहण
जैन शासन प्रभाविका अमर साधिकाएँ एवं सद्गुरुणी परम्परा : उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि | १४५
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