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साध्वारत्न पुष्पवता आमनन्दन ग्रन्थ
हो गया था । किन्तु कुछ समय के पश्चात पति का देहान्त हो जाने से आपके अन्तर्मानस में धार्मिक साधना के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई । आपका ससुर पक्ष मूर्तिपूजक आम्नाय के प्रति विशिष्ट रूप से आकर्षित था । आप तीर्थयात्रा की दृष्टि से उदयपुर आयीं । कुछ बहनें प्रवचन सुनने हेतु महासती गुलाब कुंवरजी के पास जा रही थीं । आपने उनसे पूछा कि कहाँ जा रही हैं ? उन्होंने बताया कि हम महासती जी के प्रवचन सुनने जा रही हैं । उनके साथ आप भी प्रवचन सुनने हेतु पहुँची । महासती जी के वैराग्यपूर्ण प्रवचन को सुनकर अन्तर्मानस में तीव्र वैराग्य भावना जाग्रत हुई । आपने महासतीजी से निवेदन किया कि मेरी भावना त्याग मार्ग को ग्रहण करने की है। महासती जी ने कहा- कुछ समय तक धार्मिक अध्ययन कर फिर अन्तिम निर्णय लेना अधिक उपयुक्त रहेगा । बुद्धि तीक्ष्ण थी । अतः कुछ ही दिनों से काफी थोकड़े, बोल, प्रतिक्रमण व आगमों को कण्ठस्थ कर लिया । परिवार वालों ने आपकी. भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान की । आप अपने साथ तीर्थयात्रा करने हेतु प्रभूत सम्पत्ति भी लायी थीं। परिवारवालों ने कहा- हम इस सम्पत्ति को नहीं लेंगे । अतः सारी सम्पत्ति का उन्होंने दान कर दिया । आपका प्रवचन बहुत ही मधुर होता था । आपकी अनेक शिष्याएँ थीं। उनमें महासती फूलकुंवरजी मुख्य थीं । वि० सं० १९६५ में संथारे के साथ आपका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ ।
गुरुमाता - ज्ञानकुंवर जी म०
महासती छगनकुंवरजी की एक शिष्या विदुषी महासती ज्ञानकुँवरजी थीं । आपका जन्म वि० सं० १६०५ उम्मड ग्राम में हुआ और बम्बोरा के शिवलालजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ था । सं० १६४० में आपके एक पुत्र हुआ जिसका नाम हजारीमल रखा गया । आचार्यप्रवर पूज्यश्री पूनमचन्दजी महाराज तथा महासती छगनकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर आपने १६५० में महासती श्रीछगनकुंवरजी के पास जालोट में दीक्षा ग्रहण की। आपके पुत्र ने ज्येष्ठ शुक्ला १३ रविवार के दिन समदड़ी में दीक्षा ग्रहण की। उनका नाम ताराचन्दजी महाराज रखा गया। वे ही आगे चलकर उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी महाराज के गुरु बने । महासती ज्ञानकुंवरजी महाराज बहुत ही सेवाभावी तथा तपोनिष्ठा साध्वी थीं । महासती श्री गुलाब कुंवरजी के उदयपुर स्थानापन्न विराजने पर आपश्री ने वहाँ वर्षों तक रहकर सेवा की और वि० सं० १९८७ में उदयपुर में संथारा सहित उनका स्वर्गवास हुआ ।
महासती फूलकुंवरजी
आपका जन्म उदयपुर राज्य के दुलावतों के गुड़े में वि० सं० १९२१ में हुआ । आपके पिता का नाम भगवानचन्दजी और माता का नाम चुन्नीबाई था । लघुवय में आपका पाणिग्रहण तिरपाल में हुआ । किन्तु कुछ समय के पश्चात् पति का देहान्त हो जाने से महासती छगनकुंवरजी के ऊपदेश को सुनकर विरक्ति हुई और १७ वर्ष की उम्र में आपने प्रव्रज्या ग्रहण की। आपकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण थी । आपने अनेकों शास्त्र कंठस्थ किये । आपकी प्रवचन शैली भी अत्यन्त मधुर थी । आपके प्रवचन से प्रभावित होकर निम्न शिष्याएँ बनीं - ( १ ) महासती माणककुंवरजी, (२) महासती धूलकुँवरजी, (३) महासती आनन्दकुंवरजी, (४) महासती लाभकुंवरजी, (५) महासती सोहनकुंवरजी, (६) महासती. प्रेमकुंवरजी और ( ७ ) महासती मोहनकुंवरजी । आपने पचास वर्ष तक संयम की उत्कृष्ट साधना की । वि० सं० १९८६ में आपको ऐसा प्रतीत होने लगा कि मेरा शरीर लम्बे समय तक नहीं रहेगा । आपने अपनी शिष्याओं को कहा कि मुझे अब संथारा करना है । किन्तु शिष्याओं ने निवेदन किया कि अभी आप पूर्ण स्वस्थ हैं, ऐसी स्थिति में संथारा करना उचित नहीं है । उस समय आपने
१४६ | द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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