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साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
2 ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनमें उनकी चमत्कारपूर्ण जीवन-झांकियां हैं। विस्तारभय से मैं उसे यहां नहीं दे रहा हूँ।
देव बना भक्त महासती लछमाजी सं० १९५५ में गोगुन्दा पधारीं । मन्द ज्वर के कारण शरीर शिथिल हो चुका था । अतः चैत्र वदी अष्टमी के दिन उन्होंने संथारा ग्रहण किया। तीन दिन के पश्चात् रात्रि में एक देव ने प्रकट होकर उन्हें नाना प्रकार के कष्ट दिये और विविध प्रकार के सुगंधित भोजन से भरा हुआ थाल
कि भोजन कर लो। किन्तु सतीजी ने कहा-मैं भोजन नहीं कर सकती। पहला कारण यह है कि देवों का आहार हमें कल्पता नहीं है। दूसरा कारण यह है कि रात्रि है। तीसरा कारण यह है कि मेरे संथारा है । इसलिए मैं आहार ग्रहण नहीं कर सकती।
देव ने कहा-जब तक तुम आहार ग्रहण नहीं करोगी तब तक हम तुम्हें कष्ट देंगे।
आपने कहा-मैं कष्ट से नहीं घबराती । एक क्षण भी प्रकाश करते हुए जीना श्रेयस्कर है किन्तु पथ-भ्रष्ट होकर जीना उपयुक्त नहीं है । तुम मेरे तन को कष्ट दे सकते हो, किन्तु आत्मा को नहीं । आत्मा तो अजर-अमर है । अन्त में देवशक्ति पराजित हो गयी। उसने उनकी दृढ़ता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। संथारे के समय अनेकों बार देव ने केशर की और सूखे गुलाब के पुष्पों की वृष्टि को । दीवालों पर केशर
और चन्दन की छाप लग जाती थी। संगीत की मधुर स्वर लहरियाँ सुनायी देती थीं और देवियों की पायल ध्वनि सुनकर जनमानस को आश्चर्य होता था कि ये अदृश्य ध्वनियाँ कहाँ से आ रही हैं । इस प्रकार ६७ दिन तक संथारा चला। ज्येष्ठ वदी अमावस्या वि० सं० १९५६ के दिन उनका संथारा | और वे स्वर्ग पधारी।
प्रतिभा पुज रंभाजी परम विदुषी महासतो श्री सद्दाजो की शिष्याओं में महासती श्री रत्नाजी परम विदुषी सती थीं। उनकी एक शिष्या महासती रंभाजो हुई। रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। उनकी सुशिष्या महासती श्री नवलाजी हुई । नवलाजो परम विदुषो साध्वी थीं। उनकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी। जो एक बार आपकी प्रवचन सुन लेता वह आपकी त्याग, वैराग्ययुक्त वाणी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। आपकी अनेक शिष्याएँ हुई । उनमें से पाँच शिष्याओं के नाम और उनकी परम्परा उपलब्ध होती है ।
महासती नवलाजी का शिष्या परिवार सर्वप्रथम महासती नवलाजी की सुशिष्या कंसुबाजी थीं। उनकी एक शिष्या हुई। उनका नाम सिरेकुंवरजी था और उनकी दो शिष्याएँ हुई। एक का नाम साकरकंवरजी और दूसरी का नाम नजरकुंवरजी था । महासती साकरकुंवरजी की कितनी शिष्याएँ हुई यह प्राचीन साक्ष्यों के अभाव में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । किन्तु महासती नजरकुंवरजी की पाँच शिष्याएँ हुईं । महासती नजरकुंवरजी एक विदुषी साध्वी थीं। इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के वल्लभ नगर के सन्निकट मेनार गाँव थी। आप जाति से ब्राह्मण थीं। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण आप में स्वाभाविक बौद्धिक प्रतिभा थी। आगम साहित्य का अच्छा परिज्ञान था। आपकी पाँच शिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं(१) महासती रूपकुंवरजी
यह उदयपुर के सन्निकट देलवाड़ा ग्राम की निवासिनी थीं।
१४४ द्वितीय खण्ड : व्यक्तित्व दर्शन
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