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म साध्वारत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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संसारदृष्टि रथवा भवभाग्यवादी,
पुत्रोषमेव समये समवाप्य शिष्टिम्, स्थामेव वा जगति कोऽपि कथं वदेयम् ।
बाल्ये चतुर्दशमये वयसि प्रकृष्टम् । प्राणीभवन्नयमहो रचनां सुरूपाम्,
धृत्वा वां जननिमृत्युहरं पुनाता, कर्तुं प्रभुभवितुमर्हति नात्र शक्तिः ॥७॥
नाम्नाथ पुष्पवतिका कथिता 5 वनौ सा ॥११॥ मैं जगत् में दुनियावी या भाग्यवान हूँ यह मैं इसो पुत्री ने समय पर आज्ञा प्राप्त कर चौदहकैसे कह सकता हूँ ? मनुष्य होकर ही यह मैं अनु- वर्ष के बाल्य आयुष्य में जन्म और मृत्यु के हरण कूल रचना करने के लिए समर्थ हो सकू ऐसी मुझमें करने वाले व्रत को धारण कर पवित्र हई सती इस कोई सामर्थ्य भी तो नहीं है ।७।
दुनियाँ में पुष्पवती के नाम से कही गई। आज्ञयमत्रभवतां रचनाविशेषम,
आसोदियं कुशलबुद्धि सुरूपधीरा, काव्यं भवेद् रुचिकरं विदुषां सनोज्ञम् ।
विद्यानुराग निरताध्यवसायशीला । कुर्यामहं रचयितुं हतमानसश्रीः, मन्दः कविः कथमहो रचयेत् सुकाव्यम् ।।८॥
तस्मात्सदैव समये धृतसूत्रवृत्तिः,
शब्दानुशासनविधौ परम प्रवीणा ॥१२॥ पूज्यों का यह आदेश कि विद्वत्प्रिय सुन्दर रचना विशेष काव्य हो, तो फिर मैं हृदय की उमंगों का
यह अति कुशल बुद्धि और अपने में साहसी
विद्याप्रेम में निमग्न चिन्तनशील होने के कारण उदास मूर्ख कवि सुकाव्य को कैसे बनाऊँ ? यह मेरे सामने एक समस्या है हो सकता है कि आदेश ही
सदा ही उस समय व्याकरण के शासन विधान में काव्य बनादे-यह व्यड्य है ।।
सूत्र और वृत्तियों की उपस्थिति के कारण अत्यधिक
निष्णात थी ।१२। आशेयमस्ति हृदये कृमिरत्र तुच्छः, पुष्पाश्रयो भवति भूषणमेव हारे ।
धारा प्रवाह सुरगीरस शोभिताभा, तद्वन्ममापि गतिरस्तु सतीकथायाः,
सैषा सती कतिपयेषु दिनेषु यावत् । सङ्गन केन न भुवने पतिताः प्लवन्ते ॥६॥ साहित्य शाब्दिक धरातलयो विर्भातम्,
हृदय में एक यह आशा हो सकती है कि इस ज्ञानं दधार हृदये विमले स्वकीये ॥१३॥ दुनियाँ में तुच्छ कृमि पुष्प के आश्रय से हार में यही वह सती कुछ ही दिनों के भीतर धाराभूषण ही हो जाता है, उसी के मुआफिक सतीजी प्रवाह संस्कृत के रस से जगमगा उठी और अपने की कथा से मेरी भी हालत कुछ बन जाये । क्योंकि स्वच्छ हृदय में साहित्य और व्याकरण के रहस्यों संसार में सहारा पाकर गिरे हुए भी तर जाते का देदीप्यमान ज्ञान धारण किया ॥१३।।
विद्यावधानसमये स्मृति जागरूका, ख्याते कुले बरडियागदिते यशस्वी,
सत्रः सदा विहितसिद्धिरियं पदानाम। सिंहान्त जीवन पदाद्यभिधानको ऽभूत् ।
ज्ञात्री श्रमेण बहुधा कठिनस्थलानाम्, तस्यैव वंशविभवा सुषमाति सौम्या,
सिद्धि प्रकार मपि सा सहसाध्यगच्छत् ।।१४॥ प्रमेयमेव गृहिणी समसूत पुत्रीम् ॥१०॥ पढ़ने के समय सतीजी की स्मरण शक्ति इतनी
बरडिया कहे जाने वाले प्रसिद्ध वंश में एक तेज थी कि सूत्रों के द्वारा हमेशा शब्द-सिद्धि कर कीर्तिमन्त श्रीमन्त जीवनसिंह हुए, उनकी परम लिया करती थी। अक्सर कठिन स्थलों की श्रम से सुन्दरी कुलीन प्रेमवती धर्मपत्नी ने एक पुत्री को सिद्धि जान लेती थी। जिसमें सिद्धि-प्रकार योहीं जन्म दिया।१०।
अवगत था ।१४।
हृदयोद्गारा | १२१
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