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साध्वीरत्नपुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ आसीदियं प्रखर बुद्धिधरा सुशीला,
सतियों में सैकड़ों ही दूसरी माङ्गलिक सतियां वैदुष्यमूत्तिरिव शारद चन्द्र कान्तिः ।। हो सकती हैं, क्योंकि सम्पूर्ण समूह में समयभेद से नीती विवेक विमला ऽ पिज मन्दवाणी,
ऐसा हो सकता है। सृष्टि में सदा मनुष्यों में कुछ धीरावदातवचना समयेऽ प्यवादीत् ॥१५॥ न कुछ तो अन्तर होता ही है-यह जानते हैं कि
सशील तीक्ष्णबुद्धि की, शरत्काल के चन्द्र की भेदक ज्ञान का कारण है ।१६। चन्द्रिका सी एक विद्वत्ता की मूर्ति थी। व्यवहार में स्वास्थ्यं यदा समभविष्यदथानुरूपम, स्वच्छ ज्ञान रखती हुई भी आप जिझकती नहीं थी,
सत्याः स्वरूपमधिकं प्रसृतं व्यधास्यत् । सुन्दर वचनों से कभी कह भी देती थी ।१५।
तस्मादहं कथयितुं विरतः कथायाः, बुद्धया विवेक परया समधीत शास्त्रा,
अस्याः परन्तु चरितादतियाति किं तत् ॥२०॥ वाक्यप्रसूनमिव सा सहसोद् गिरन्ती।
यदि सतीजी का स्वास्थ्य यदि अनुरूप अर्थात् जाते विचार समये शतधाऽ प्यवोचत्,
जैसा चाहिए ऐसा रहा होता तो सतीजी का अपना साध्वीषु पुष्पवतिका गणिताधुनासौ ।१६।।
__रूप कुछ अधिक फैलता हुआ होता। इसलिए मैं समझदारी के साथ अच्छी तरह से शास्त्रों का अधिक कुछ कहने से विरत होता है किन्तु इतने अध्ययन किया, एक साथ बोलती हुई ऐसी लगती ।
पर भी इसके चरित से बढ़कर कोई चरित है थी जैसे वाक्यों के पुष्प हों। विचार के समय सैकड़ों
क्या?।२०। तरह से बोलती थी, वे ही सती अब मान्य सतियों
भाग्यादियं परिगतासु सतीषु कस्याः, में आज गिनी जाती हैं ।१६।।
प्रेताभिभूतवचसौ वचसामसह्याम् । भव्याकृतिः सहज सुन्दर शब्द मालान्,
वाणालि व्यसहताऽपरनामसत्याः, आलम्ब्य भावशतशो गुरुदेवतायाः।
पुष्पासती मधुरवागपि किं वदेयम् ॥२१॥ सेवाविधौ धृतमतिः सततोद्यतासीत्,
भाग्य से आई हुई सतियों में से किसी प्रेताभाषा विशेषरुचयो मतयः सतीनाम् ।१७।।
भिभूत नाम की, दूसरा नाम जिसका सती ही हो स्वाभाविक सुन्दर शब्दों को लेकर भव्याकृति
__ सकता है, वचनों की असह्य बाणावलि को इन सतीजी अपनी गुरुदेवता के सेवाविधान में साव-
मधुर वाणी वाली सती पुष्पवतीजी ने कहा-यह धान रहकर सदा तत्पर रहती थीं। सतीजन के
मैं कैसे कहूँ ? जिस पर बीतती है, वही जानता विचार भाषा विशेष की रुचि के होते हैं ।१७।
है ।२१॥ किंवाधिकं कथयितुं प्रभवेज्जनोऽमूम्,
मिथ्या वदेयुरपरेऽपि कथामिमां मे, पुष्पां सती विशदभाववती सुशीलाम् ।
यामुक्तवानहमहो विपदां समूहम् । अद्यावधौ निखिल जैनसती समूहम् दीक्षाविशेषमधिगत्य सती पुरोक्ता, दृष्ट्वापि भावसदृशीं न हि भावयेयम् ॥१८॥
विभ्राजते पुनरसौ सुमतिः सभायाम् ॥२२॥ सुशील खुले दिमाग की इन सती पुष्पवतीजी
जिस कहानी को मैंने अभी कहा है, उसको को कोई कहने के लिए कहाँ तक अधिक कह पायेगा ? आज तक सभी सतियों के समुदाय को
दूसरे भी मिथ्या कहेंगे-कहानी क्या ? उस
विपत्तियों के समूह को । पूर्वोक्त वही सतीदेखकर भी मैं तो उनके समान समझ नहीं ।
श्रीपुष्कराभिधमुनेगुरुदेवकीर्तेः सका ।१८। भव्या भवेयुरपराः शतशः सतीनाम्,
शिष्यस्य सास्य भगिनी शतशः कृतीनाम् । कालान्तरेण जगतः सकले समूहे।
निर्मातुरत्रभक्तो महिमानमाप्तुः, सृष्टौ सदा भवति भेदकजोधहेतुः,
देवेन्द्रनाम सुमुनेरधिशीतलांशोः ॥२३॥ विद्यो वयं जनजनान्तरमन्तरं यत् ॥१६॥ गुरुदेव श्री पुष्करमुनि के शिष्य अधि शीतलाँशु
१२२ | प्रथम खण्ड : शुभ कामना : अभिनन्दन
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