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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
हृदयोद्गाराः
-पं रमाशंकरजी शास्त्री ( अजमेर राजस्थान )
पावनों दीक्षास्वर्ण जयन्तीमुपलक्ष्य परमविदुष्याः साध्वी रत्नस्य श्रीमत्याः पुष्पवत्याः शुभाय श्रीमतेSभिनन्दनाय पद्याञ्जलेः समर्पणम् ।
संसारजीवजगतः परमं हितेच्छु, मोक्षेच्छुकं प्रकृतिहेतुजनेविरक्तम् । ज्ञानात्मदेहविषये हृतसंशयं तं वन्दे गुणातिशयितं भुवि वर्द्धमानम् ।। पद्याञ्जलेः प्रारम्भः आसं कियानहमहो दयया विहीनः, सामान्यजैन जनतोऽपि विवेकशून्यः । बालो हठीव पदमात्रविचारधीरः, प्राप्तोऽभवं प्रथममेव विशेषमूर्तिम् ॥१॥ सामान्य जैन जन से भी विवेकशून्य मैं कितना दया से हीन था, अर्थात् कठोर था । केवल व्याकरण के विचार में साहसी आग्रही बालक के समान सर्व- प्रथम मैं एक अनोखी मूर्ति से मिला |१| दृष्ट्वैव मे हृदयमाचकितं विभूत्या, मूर्तेरशेषवचन परितोषमाप्तः । जिज्ञासा किमपि धैर्यमवाप्य चित्ते, मुग्धः सदा हि बहुशो लपनाभिलाषः ॥२॥ देखकर ही मेरा हृदय विभूति से विस्मित हो उठा तब उस मूर्ति के सब कहने से ढाढस प्राप्त कर सका, हृदय में जानने की इच्छा से साहस बटोर कर कहने लगा क्योंकि बेहोश अधिकतर बकवास किया करते हैं |२|
तद्वानहं किमपि तां प्रति नाऽभ्यवोचम्,
तस्यां स्थितावपि तु सा सहसाऽप्यवोचत् । ज्ञातं मया भवतु यज्जगती तलेऽस्मिन्, सिद्ध श्रमः फलति तद्वचनं न वाचा ॥३॥
बकवासी रहने पर भी मैं उस मूर्ति से कुछ भीं कह न सका, ऐसी हालत में उस मूर्ति ने एक साथ कहा कि मैं सब कुछ समझ गई, जगत् में जो होता है होता रहे, किन्तु सफलता के लिये श्रम करना
१२० | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
होता है, केवल कहने से कुछ नहीं होता | ३| आसीदसौ विजयमूत्तिरपीह नान्या, साधूत्तमा भगवती भुवनेषु शोभा । मातैव वा गुरुरियं किमपीह वाच्या, सा शोभना शुभमतिर्मम सोहनैषा ||४|| यह वही विजयमूत्ति थी और कोई दूसरी नहीं थी जो त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ साध्वीरत्न भगवती थी यहाँ कुछ भी कहनी चाहिये, मेरे लिये तो यह गुरु थी अथवा माता ही थी, मेरी कल्याणकारिणी शोभनकुमारी यही वह सोहनकुंवर थी ॥४॥
देहाबला व्रतवली सकलागमश्रीः, तेजस्विनी मुनिगणेन समादृतासौ । आसीदियं कृतिगुरुर्जगदेक पूज्या, तस्या अहो विमल पुष्पवती सतीयम् ॥५॥ शरीर से निर्बल ब्रह्मचर्यादिव्रतों की धारणकर्त्री सम्पूर्ण आगमों की ज्ञात्री तेजस्विनी सती सोहनकुंवरजी महाराज मुनियों के द्वारा भी आदर की महासती थी, उनकी ही यह स्वच्छ पुष्पवती पात्र थीं, यह निर्माण में दक्ष, संसार भर की पूज्य
सती हैं |५|
सत्यं वदामि भवतां पुरतः समस्तान्, ज्ञातुं गुणान् न च गुणी कथमग्रणीर्वा । वक्तुं भवेयमथवा सकलागमानाम्, ज्ञाताऽपि किं पुनरसौ वदितुं प्रभुश्वेत् ॥६॥ आपके सामने मैं सच कहता हूँ कि सभी गुणों का जानकार नहीं हूँ गुणों के जानकारों का अगुआ होना तो दूर की बात है या सभी आगमों का जान कार भी क्या गुणों के वर्णन में समर्थ हो सकता है ? अर्थात् गुणों के ज्ञाता सब नहीं हो सकते । इसलिए मैं गुणों का सही वर्णन का अधिकारी नहीं हूँ तथापि गुणवर्णन में प्रसक्त हूँ - यह मेरी मूर्खता ही है | ६ |
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