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संघ में स्थान मिला। किन्तु जैन तीर्थकर नारी के समुत्कर्ष हेतु सदा पक्षधर रहे हैं। उन्होंने अपने संघ में पुरुष के समान ही नारी को स्थान दिया और उसे मोक्ष की अधिकारिणी माना।
यह भी सत्य है कि प्रत्येक वस्तु के दो पहलू होते हैं। हमें भारतीय साहित्य में नारी के दोनों ही पक्ष मिलते हैं । एक पक्ष शुभ है तो दूसरा पक्ष अशुभ है । शुभ पक्ष में नारी के गुणों का उत्कीर्तन है तो अशुभ पक्ष में नारी की निन्दा है । उसे वासना की प्रतिमा माना है। उसमें माया की प्रधानता होती है। पर जब हम शान्त मस्तिष्क से तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो निन्दा का मूल कारण वैराग्यवाद है। जिससे पुरुष उसके प्रति आकर्षित न हो, किन्तु जिन दुर्गुणों का चित्रण नारी के लिए है, वे ही दुर्गुण पुरुष में भी रहे हुए हैं। पुरुष भी उन दुर्गुणों से मुक्त नहीं है। किसी ने नारी को कोसा है तो किसी ने उसकी प्रशंसा के गीत गाये हैं। किसी ने उसे जीवन को बर्बाद करने वाली माना है तो किसी ने उसे नवनिर्माण की प्रेरिका कहा है । प्रशंसा और निन्दा कुछ तो लेखक के कटु या मधुर अनुभवों के आधार पर हुई है । पर अध्यात्म मनीषियों ने नारी और पुरुष के शरीर में भेद होने पर भी आत्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं माना है।
पूर्व पंक्तियों में हम यह लिख चुके हैं कि साधना की दृष्टि से, आत्म-उपलब्धि की दृष्टि से नारी और पुरुष में भेद नहीं है । वहाँ तो सिर्फ चेतन सत्ता का महत्त्व है । जीवन के ऊर्ध्वमुखी आरोहणयात्रा में नारी एक विशिष्ट उपकारी चेतना रही है । उसके अन्तर में कुछ ऐसे सहज गुण हैं जो पुरुष के लिए प्रेरणा और जागरण का सन्देश स्फुरित करते हैं ।
नारी के असीम और अगणित उपकार पुरुष जाति पर हैं। तथापि आश्चर्य है कि परुष जाति ने नारी को उपेक्षित कर द्वितीय स्थान पर बिठा दिया है। इसके ऐतिहासिक या मनोवैज्ञा कारण रहे हैं। पर यह निश्चित है कि जब नारी जगेगी तभी पुरुष जगेगा । नारी वह चन्द्रकान्त मणि है जिसकी शीतल रश्मियों के आलोक में पुरुष न केवल अपना पथ खोजता रहा है, अपितु अपनी दिव्य शक्तियों को जागृत कर जन से जिन पद तक पहुँचता रहा है।
___ यह महिमा नारी शरीर की नहीं, नारी शक्ति की है, आत्मा की है । हम नारी को एक प्रबुद्ध आत्मा के रूप में देखते हैं । उद्बोधिनी शक्ति के रूप में जानते हैं । ब्राह्मी-सुन्दरी ने वाहुबली को जगाया। राजीमति ने रथनेमी को प्रबोध दिया । कमलावती ने ईषुकार को सम्बोधि दी। चेलना ने श्रेणिक को सम्यक् पथ दिखलाया। मृगावतो ने चण्डप्रद्योत को महावीर के चरण शरण में पहुँचाया। याकिनी महत्तरा ने हरिभद्र को सही मार्ग बताया । रत्नावली ने तुलसी को सन्त तुलसी बनाया। इस प्रकार नारी ने हजारों-लाखों प्राणियों को आत्म-स्वरूप का दर्शन कराकर अपूर्व शक्ति प्रदान की।
जैन तीर्थंकरों का यह वज्र आघोष रहा है कि आध्यात्मिक समुत्कर्ष जितना पुरुष कर सकता है उतना नारी भी कर सकती है । चतुर्विध संघ में दो संघ नारी से सम्बन्धित हैं। यदि यह कह दिया जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पुरुषों की अपेक्षा भी नारी के कदम आगे रहे हैं। तप-त्याग सेवा और साधना की वह जीवन्त प्रतिमा है, उसने तप और साधना के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किया है वह बहुत ही अद्भुत है, अनूठा है। उसी दिव्य परम्परा की पवित्र लड़ी की कड़ी में साध्वीरत्न पुष्पवती जी का नाम सहज रूप से लिया जा सकता है।
साध्वीरत्न श्री पुष्पवतीजी एक विदुषी श्रमणी हैं, एक साधिका हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र-रत्नत्रय की आराधिका हैं । उनका जीवन तप एवं जप योग की उपासना से आभासित है। आपके जीवन में
आदिवचन
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