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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
वह उल्लास का विषय होता था वहां जन साधारण के लिए अनूठा पथ-प्रदर्शक । नपी-तुली भाषा में बिना किसी भी प्रकार की रुकावट के अपने विषय का विवेचन करना केवल अनुभय की ही वस्तु है । जैन धर्म के तत्त्व विवेचन के साथ-साथ धर्मों के तथ्यों का सामञ्जस्य मानो स्वाभाविक रूप में प्रवचनों में उभर आता था। वेद, उपनिषद, गीता, श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में से उद्धरणों एवं उदाहरणों से श्रोतागण प्रभावित होते रहते थे । रामायण एवं महाभारत से भी आप अपने प्रवचनों को उद्दीप्त करती थी। कभी कभार ऐसा एतीत होता था कि आपश्री का स्वास्थ सामान्य से कुछ न्यून है किन्तु आपने कभी यह आभास न होने दिया कि उन्हें किसी प्रकार की असाता है। फलतः उनके प्रवचन लगभग निरंतर चलते रहे । महातपस्विता मानों उनको वशवर्तिनी थी। प्रत्येक वस्तु, स्थिति; परिस्थिति को वे अत्यन्त सहज रूप में लेती रही । श्रोताओं का पुण्योदय ही कहा जाएगा।
साध्वीरत्न के विषय में जितना कहा जाय, न्यून ही रहेगा। उपर्युक्त निवेदन में यदि कोई त्रुटि कहीं है, तो लेखक की है और उसका कारण हो सकता है; सुनने अथवा लेखन में प्रमाद । तदर्थ वह क्षमा प्रार्थी ।
शु भा कां क्षा
-डा० एम० पी० पटैरिया; (चुरारा)
मैंने देखा, अक्सर लोग सोचते हैं, उनके पास मानवीय जीवन का श्रेयष्कर मार्ग यही है। जो कम है वह आधा/अधरा है। जबकि दसरों के जीवन सिद्धान्त के उक्त सन्दर्भ में परम विदषी पास बहुत कुछ/पूरा है। इस तरह का चिन्तन मृग- साध्वी रत्न श्री पुष्पवतीजी महाराज के प्रस्थान तृष्णा है । जीवन के बोध का दिग्भ्रम है।
क्रम पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट होता है __व्यक्ति के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण यथार्थ कि उनका प्रारम्भिक व्यक्तित्व सामान्य व्यक्तियों यह है कि वह अपूर्व है। मैं तुम और वे सब भी, की तरह, आधा/अधूरा था। किन्तु वे मृगतृष्णा में जो इस जगत में हैं, अपूर्ण/अधरे हैं।
नहीं उलझी। उस समय उन्हें जो कुछ प्राप्त था, जीवन की सार्थकता, इसमें नहीं है, कि जो हमें उसे उन्होंने पहिचाना/परखा; और अपने पूर्ण नहीं मिला, उसके लिए रोते पछताते रहें। योग/यत्न से बहत कुछ पाने । बनने के लिए, पथ. हमें चाहिए, कि जो कुछ हमें है, उसे मिला वती बन चल पड़ीं। अपने प्रस्थान के गत पचास पहिचाने और जो कुछ हम पाना । बनना चाहते बसन्तों में संयम-अभिषिक्त उनकी साधना-लता, हैं, उसके लिये समग्र योग यत्न से प्रयास करें। अब वस्तुतः 'पुष्पवती' बनकर निखरी है। उसकी ___अन्ततः, हमने जो पालिया, उसका मूल्यांकन सरसवती उपलब्धियाँ भी अभिनन्दनीय हैं । में वे करें; उसी पर सन्तोष/सुख/आनन्द का अनुभव 'फलवती' बनकर जीवन की सार्थकता के छोर तक करें।
पहुंचे, यही मेरी शुभाकांक्षा है।
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७८ | प्रथम खण्ड, शुभकामना : अभिनन्दन
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