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साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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-सुव्रत मुनि “सत्यार्थी" (एम. ए. हिन्दी, संस्कृत)
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सन्त रहें इस जगत में, नीरज सम निर्लिप्त। काव्य न्याय व्याकरण में, आप बड़ी निष्णात । अतः जन गण करे उन्हें श्रद्धा से अभिषिक्त । ग्रन्थ अनेकों हैं लिखे, गीतों की क्या बात ।। शरीर से तो भिन्न हैं, सन्त सती महाराज। चन्द्रवती प्रिय दर्शना, किरण प्रभा महान् । आत्म दृष्टि से एक है, कहता प्राज्ञ समाज ॥ रत्न ज्योतिजी सुशिष्या, गुण रत्नों की खान ।। ज्ञान ज्योति से जो करे, दूर तिमिर अज्ञान। प्रशिष्या सुप्रभा आपकी, रहे आपके पास । त्याग और परोपकारिता, सन्तों की पहचान ॥ श्रमण संघ को आपसे, बहुत बड़ी है आश ।। रही महत्ता त्याग की, इस पृथ्वी पर नित्य । भ्रात तव देवेन्द्र मुनि, जैनागम विद्वान । अभिनन्दन कर त्याग का, जनता हो कृत कृत्य ।। स्वर्ण जयन्ती मना रहे, सबका कर आह्वान ।। ऐसी ही ये महासती पुष्पवती महाराज। अभिनन्दन हेतु आपके, तत्पर समस्त संघ । उपकारों से आपके कृतज्ञ जैन समाज ॥ 'सुव्रत मुनि' के हृदय में, उठी बड़ी उमंग ।। -पचास वर्ष से करती, संघ का उत्थान । सहस्र जीवी आप हों, करें पूर्ण विकास । इसीलिए ही बन गई, सती वृन्द की शान ॥ "सुव्रत" जन मन को मिले,आध्यात्मिक सु प्रकाश ।।
স্থান-ছান ম ত মনী।
-परमविदुषी महासती श्री शीलकुवरजी म. पुष्प पुष्प सम जीवन तेरा।
उनको गुरुणी सम समझा मैंने । है ज्ञान सौरभ महान ।।
कहूँ हृदय से आज ।। महासतीजी के चेहरे पर।
जैसी धूल गुरुणी मेरी। है गहरी मुस्कान ।। १ ।। जिन्होंने दिया था शिक्षा साज ।। ४ ।। साहित्यरत्न हिन्दी में कीना ।
उनके वरद हस्तों के नीचे । और आगम का ज्ञान ।।
खिला "पृष्प" ये खास ॥ "पुष्पवती" जी महासती।
विद्वत्ता से आप श्री की। जिन शासन की शान ॥२॥ फैली जग सुवास ॥ ५॥ सरल स्वभावी तपोधनी।
शत शत वर्ष जीओ सतीजी। ज्ञान - सेवा - गुण खास ।।
करो धर्म प्रचार ॥ स्वर्ण सी सोहन गुरुणी तेरी।
आशीर्वाद है “शील" का। लेश न वाणी विलास ॥ ३॥
मात्र
उद्गार ॥६॥
हृदय
६० | प्रथम खण्ड : शुभकामना : अभिनन्दन
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