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विचारवंतों के दृष्टि में आपले राष्ट्रपिता महात्मा गांधींनी ज्या सत्य-अहिंसेचा राजनीतीमध्ये अद्भुत प्रयोग करून एक चमत्कार आपल्या डोळ्यादेखत करून दाखविला त्याची पूर्ण प्रतिष्ठा आपल्या महान जीवनात करणारे जे महापुरुष निरंतर त्या तत्त्वांकडे आम्हास प्रेरित करतात ते वंदनीय होत. मला आशा आहे आचार्यश्री शांतिसागर यांच्या महान जीवनापासून जैन समाज प्रेरणा प्राप्त करील व राष्ट्राच्या एका महान आवश्यकतेची पूर्ती करील.
-ना. ब्रिजलाल बियाणी
अर्थमंत्री, मध्यप्रदेश
प्रातःस्मरणीय परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती
प्रेषक : आचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज आपके दर्शन का सौभाग्य सब से पहले मुझे गृहस्थावस्था में जयपुर, इंदौर, सिद्धवरकूट आदि स्थानों में प्राप्त हुआ। पर अन्तिम दर्शन मुझे क्षुल्लक अवस्था में हुए। जब गुरुदेव १०८ श्री चंद्रसागरजी महाराज आपके दर्शनार्थ कुंथलगिरी पधारे थे। आपके साथ विशेष सम्पर्क तो न हो सका पर आपके व्यक्तित्व, त्याग और तपस्या से मैं इतना प्रभावित हुआ कि शीघ्र ही आपके पट्टशिष्य स्वर्गीय गुरुवर्य १०८ श्री वीरसागरजी महाराज से मैंने दिगम्बरी दीक्षा धारण की और कल्याणमार्ग पर अग्रसर हो सका। जब आपकी जीवनी को पढते हैं तो चतुर्थ काल में जिनकल्पी साधु के जीवन में जो बातें होती हैं व जिनका दिग्दर्शन योगभक्ति में होता है वे सब आपके जीवन में दृष्टिगोचर होती हैं। सच पूछा जाय तो हम शतांश में भी पालने में असमर्थ हैं।
वास्तव में आपका जीवन एक अलौकिक जीवन था। आपने मोक्ष प्राप्ति के हेतु अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग परिग्रह का त्याग कर परम दिगम्बरत्व धारण किया, जो ख्याति, लाभ, पूजा, भोग, आकांक्षा आदि संसार सागर में डुबोनेवाली प्रवृत्तियों से दूर रहकर परम उत्कृष्ट मोक्ष पुरुषार्थ की साधना में सदा निरत रहे हो। आप स्वयं ज्ञान, ध्यान व तप में सदैव रत रहते थे। आपने पूर्व आचार्यों के पद चिन्हों का अनुसरण करके वर्तमान समय में सैकड़ों वर्षों से लुप्त विशुद्ध मुनिमार्ग को प्रगट किया। आचार्यों के छत्तीस गुणों का वर्णन जैसा आगम में पाया जाता है उसमें आप पारगामी थे।
स्वयं पंचाचार का पालन करते थे और अपने शिष्यों से पालन करवाते थे ऐसे परम योगी सम्राट आचार्य प्रवर महाराज ! आपके पुनीत चरणों म मेरा सिद्ध भक्तिपूर्वक शत शत वंदन (नमोस्तु) । मेरी भी अन्तरंग अन्तिम भावना यही है कि साधु जीवन के इस पर्याय का परम लक्ष्य समाधिमरण है
गुरुमूले यतिनिचिते चैत्यसिद्धान्तवार्ध सदोषे । मम भवतु जन्म जन्मनि संन्यसन-समन्वितं मरणं ॥
वही मुझे भी प्राप्त हो।
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