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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
तिथिर्वोत्सवा सर्वे व्यक्ता येन महात्मना । अतिथिं ते विजानीयात् शेषमभ्यागतं विदुः ॥
सब ही तिथियाँ पर्व और उत्सव सम्बंधी विकल्पों से ये महर्षी सदा ही दूर होते हैं । इसीलिए इनका यथार्थ नाम 'अतिथि' होता है ।
सूक्ष्म से सूक्ष्म विचार करनेपर आत्मा तो यही कहती है कि, महाराज वर्तमान युग के महान् सत्पात्र तो रहे ही हैं । परंतु उनके द्वारा जो ज्ञानदान और दृष्टिदान हुआ है उससे विश्वास के साथ निर्धारपूर्वक कहा जा सकता है कि महाराज श्रेष्ठ से श्रेष्ठ दानी भी रहे । पात्र समझकर जो चढाया गया वह थोडा था और दाता समझकर जो कुछ समाज के द्वारा लिया गया वह भी थोडा था इस सत्य को स्वीकार करना होगा ।
आदर्श सल्लेखना
विचार और भावनाओं का समसमा संयोग आचार्यश्री के जीवनी की एक विशेषता थी । भावनाओं में आकर शक्ति को व्यर्थ खोना या व्यर्थ खोने का विकल्प करना यह असंभव था । भविष्य की आशा में वर्तमान को गंवाना वे प्रकाश के बदले में अंधःकार को खरीदना जैसा मानते थे । वर्षों से अखण्ड रूप से की गयी हजारों मीलों की पदयात्रा, यथासंभव अनुकूल प्रतिकूल आहार का संयोग, उपवासों की धाराप्रवाहिता, स्वाभाविक वृद्धावस्था, अल्पनिद्रा आदि कारणों से दृष्टि में पूर्व की अपेक्षा अधिकाधिक मंदता का अनुभव होने लगा । वैद्य और तज्ज्ञ डाक्टरों से समयसमय पर बराबर परामर्श होता था । शुद्ध उपचारों का विशुद्ध भावनाओं से अमल भी होता था । दृष्टिविनाश होने के बाद समितियों का पालन और प्राणस्वरूप मुनिचर्या असंभव है, इसलिए साधनों की सुरक्षा सावधानतापूर्वक अप्रमाद भाव से आचार्यश्री प्रारंभ से ही करते रहे । आचार्यश्री विनोद में शरीर को सवारी का घोडा कहा करते थे । जब घोडे से काम लेना है और घोडा बराबर काम देता है तो मात्रा में चना देना ही होगा । शरीर की या इंद्रियों की गुलामी यह कोई अलग चीज होती है विदेही भावनाओं के धनी चारित्रचक्रवर्ति इस जन्म से प्राप्त घोडे से ठीक काम लेना बराबर जानते थे। राणा प्रताप के ईमानदार 'चेतक' की तरह महाराजश्री के देह ने महाराज के आत्मा को पूरी साथ दी; परंतु देहधर्म की अपनी प्रकृति है उसे शिथिल और कमजोर पाकर महाराजश्री बिलकुल सचेत हो गये । शुरू में कांचबिंदु बतलाया गया और अंत में डॉ. आरोसकरजी के द्वारा मोतिबिंदु की निश्चितता सुनिश्चित होनेपर निर्विकल्प रूपसे सल्लेखना ही एकमात्र शरण है ऐसी अंतरङ्ग में दृढ धारणा हो गयी ।
उसे
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समाधि, सल्लेखना, समाधिमरण, वीरमरण, मृत्यु महोत्सव ये ऐसे सार्थक शब्द हैं जो यह बतलाते हैं कि साधक किन पवित्र भावनाओं से सावधानतापूर्वक मृत्यु का सहर्ष स्वागत करता है । शरीर का गल जाना, विनश जाना यह अटल प्रकृति है । वास्तव में जन्म जितना सत्य होता है उतनाही मृत्यु सत्य होता है । परंतु भोगी बहिर्दृष्टि लौकिक पुरुष जन्म का सहर्ष स्वागत करता है, आनंद मनाता है और
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