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जीवनपरिचय तथा कार्य
४३ मृत्यु से डरता है, मृत्यु के नाममात्र से रोता है, यही विकल्पपरायण अज्ञानी की अज्ञानता है। जन्म होना, छोटे से बडा होना, परिपुष्ट होना और अंत में गल जाना यही प्राणीयों के प्राणों का स्वभाव होता है । जीवन का कोई विश्वास नहीं यह सब कोई कहते हैं और नित्य नये विकल्पों को करते भी जाते हैं। यही अज्ञानियों का अज्ञान है। महाराजजी ने जीवनी से पूरा काम लिया था। रसपूर्ण गन्ने का पूरा रस निकाला हुआ था। सारहीन भाग यदि ठीक ढंग से जलता हो तो उसमें शोक वृथा होता है । विकल्प निरर्थक होते हैं। वस्तुतत्त्व के आधार से संकल्प विकल्पों का परित्याग और आत्मस्वरूप स्थिरता यह समाधि या सल्लेखना की आत्मा होती है और आहार के क्रमशः विधिपुरस्सर परित्यागपूर्वक होनेवाला देहविसर्जन यह समाधि का कलेवर होता है। शरीर की धारणा बनी रहना यह उपजीवन है और स्वरूप में अकंप स्थिरता यह आत्मा का जीवन है। यह दोनों का सुनिश्चित स्वरूप है वैसे ही जीवन के लिए उपजीवन होता है न कि उपजीवन के लिए जीवन यह पारस्परिक सम्बन्ध भी उतनाही निश्चित है। जीवनी को यह सम्यग्दर्शन पूज्य महाराजजी की युवावस्था से ही यथार्थ रूप में था । इस लिए परलोक यात्रा की तैयारी सहर्ष भावना से पूरी हो गयी थी। दिनांक १८८५५ को महाराजजी का यम सल्लेखना का जो ही निर्णय प्रगट हुआ समाज भर को, देश भर को भूचाल जैसा धक्का लगा। जो स्वाभाविक ही था।
अंतिम आहार और परित्याग अन्न आहार के रूप में अंतिम ग्रास दिनांक १८१८ को दिया गया। ता. २६।८ को मध्याह्न में सल्लेखना विधि के अनुसार महाराजश्री के द्वारा क्षमा याचना का क्षमा के आदान प्रदान का भाव व्यक्त हुआ। यह संपूर्ण दृश्य अभिनव था। सभा में गंभीरता का वातावरण भर आया। उपचार विधि में पूरी परमार्थता किस प्रकार हो सकती है इसका वह मूर्तिमान रूप था। बस अब सदा के लिए अन्नाहार बंद हो गया। केवल पानी मात्र की छूट थी। आगे चल कर पानी का भी दिनांक २८।८।५५ को परित्याग कर दिया। फिर भी मंदिरों के दर्शन, यथाशक्ति वंदना, अभिषेक, पूजा इत्यादि का अवलोकन, मंत्रस्मरण आदि में कोई खण्ड नहीं रहा। लोगों की बढ़ती हुई भीड का क्या कहना ? कुंथलगिरि के उस वीरान् पहाडी में जनसागर उमड पडा । जिसको ही समाचार मिला और अनुकूलता मिली वह साधकोत्तम महापुरुष के अंतिम दर्शन के लिए वहांपर पहुँचा। महासाधक की वह महायात्रा थी। सम्मिश्र भावनाओं का सम्मिश्र रस रूप गोच्चर होता था। जहां महाराजश्री स्वाभाविक रूप से सहजभावना से अपूर्व आनंद रसमें उन्मुक्त मन से अधिकाधिक मग्न होते हुए नजर आते थे ! शांतिसागर स्वनामधन्य शांतिसागर अथाह शांति के सागर में निमग्न थे। उसी समय जनता सागर शोक में डूबता हुआ दृष्टिगोचर होता था। कुंथलगिरि का दृश्य कुछ अपूर्व था। बाहर की दुनिया में जैनाजैन समाचार पत्रों में अनुकूल प्रतिकूल समाचार साभिप्राय प्रगट होते ही थे। अपने अपने विकल्पों को सबके लिए छूट होती ही है। व्यक्तिस्वातंत्र्य का युग है। कोई ‘जैन साधु की पवित्र महायात्रा' लिखता था कोई ‘जैन साधूची आत्महत्त्या' लिखता था । युद्ध में मृत्यु हो तो 'वीरमरण' कहना । देशभक्त
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