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जीवनपरिचय तथा कार्य कर ही लिया था। इसी अवसर पर एक समाचार विदित हुआ कि दक्षिण में म्हैसूर स्टेट के अंतर्गत 'बस्ती हळ्ळी' देहात में एक १५ फूट ऊंची मनोज्ञ मूर्ति है और वह एक अजैनभाई के खेत में करीब अज्ञात अवस्था में पड़ी हुई है, उसीको लाकर खडी करने का विचार किया गया। स्व० श्रीमान् सेठ रावजी देवचंद शहा आदि सज्जन स्वयं वहाँ पहुँचे। काफी प्रयास किया गया। परंतु सफलता नहीं मिल पायी। केवल फोटो मात्र मिल पाया। उसेही सिरपर रखकर आचार्यश्री ने धन्यता के भाव प्रगट किये। वीतरागता की साधना में परम वीतराग मूर्ति के दर्शन से अद्भुत आनंद की और धर्मोल्लास की लहर होना सहज था । आचार्यश्री के चर्यापर वह दृग्गोचर हुई। आचार्य महाराज के भव्यभावों की पूर्ति होनीही चाहिए इस प्रकार का भव्य भाव समीपवर्ती सेवाभावी सरल प्रकृति श्रेष्ठीवर्य श्रीमान् नेमचंदजी मियाचंदजी गांधी, नातेपुते के चित्त में आया । 'यदि महाराजजी की आज्ञा हो तो इसी क्षेत्र के ऊपर १८-२० फुट ऊंची बाहुबली भगवान् की मूर्ति विराजमान करने का मेरा भाव है' योगायोग की घटना है दो वर्ष पूर्वही सन १९७० में १८ फीट ऊंची बाहुबली भमवान् की मूर्ति पहाडी के ऊपर पूर्वाभिमुख विराजमान होकर प्रतिष्ठा भी संपन्न हो गयी। इस प्रकार एक तरह से महाराज के संपूर्ण काम सिद्ध हुए।
हीरक जयन्ति महोत्सव जैनीयों की दक्षिणकाशी फलटण नगरी धर्मकार्यों को उत्साह तथा उल्हास के साथ करतीही आरही है । सन १९५२ की घटना है। पूज्य श्री के जीवनी ८० वर्ष पूरे हुए। इस प्रसंग से हीरक जयन्ति महोत्सव संपन्न करने का निर्णय एक स्वर से किया गया। आचार्यश्री को उत्सवों से कोई हर्ष विषाद नहीं था। एक तरह से त्याग तपस्या का ही यह गौरव होना था । जून की ता. १२।१३।१४ ये तीन दिन विशेष आनंदोत्सव के रहे। सर्वत्र चहलपहल रही। भारत के कोने कोने से हजारो भाई फलटण पहुँचे । इंदौर से रावराजा सेठ राजकुमारसिंहजी, रावराजा सेठ हीरालालजी पहुँचे । बम्बई से सेठ रतनचंदजी, सेठ लालचंदजी, अजमेर से सेठ भागचंदजी, कलकत्ता, देहली, कोल्हापूर, बेळगांव, नांदगांव, नागपूर, सिवनी, जबलपूर, बेळगांव, बाहुबली, सांगली, शेडवाळ, भोज आदि शहरों से सज्जन उत्सव में सम्मिलित हुए। सभा सम्मेलन हुए। योजनाबद्ध रूप से श्रद्धांजलियों का समर्पण हुआ। पूजाप्रभावना हुई। ताम्रपत्रो के ऊपर उत्कीर्ण धवलादि ग्रंथों का हाथीयों के ऊपर जुलूस निकालकर वे ग्रंथ भक्तिभावपूर्वक पूज्य आचार्यश्री को समारोह के साथ समर्पण किये गये । छोटेमोटे सबही कार्यों में विशेष सातिशय सजीवता दिखलायी देती थी । स्वयं फलटणस्टेट के अधिपति श्रीमान् मालोजीराव निंबाळकर फलटन नगरी का यह अहोभाग्य समझते रहे । हीरक जयन्ति महोत्सव के निमित्त से एक सचित्र स्मरणिका प्रकाशित हुई । जिससे उत्सव का सचेतन स्वरूप सुस्पष्ट होता है। इस समय महाराजश्री के अनुभव रसपूर्ण हुए । 'रत्नत्रयधर्म की साधना जीवन का एक मात्र लक्ष्य होनी चाहिए । धर्म से ही शेष पुरुषार्थों की प्राप्ति एवं सफलता होती है। ऐसे ही भावपूर्ण वक्तव्य हुए । आचार्यश्री जीवनी के क्षणों का मूल्य बराबर जानते थे । उपचार और परमार्थ दोनों का परिज्ञान उन्हें बराबर था। सदा की भांति वे अपनी आत्मसाधना में विशेष तन्मय हुए। रत्नत्रयों के श्रेष्ठ आराधक रत्नत्रयों के अकम्प प्रकाश में अविचल रूप से सुस्थित थे। निग्रंथ साधु की विशेषता के पुण्यदर्शन बराबर होते थे । आचार्य महाराज खूब जानते थे।
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