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जीवनपरिचय तथा कार्य का आविर्भाव होता ही है। ठीक इसी तरह सांस्कृतिक एकता का यह सजीव स्वरूप प्रभावशाली बन गया ।
श्री सम्मेदशिखरजी की वंदना करके वहाँ से मंदारगिरी, चंपापुरी, पावापुरी, राजगृही, गुणावा आदि अनेक सिद्धक्षेत्रों की संघ ने यात्रा की।
जैन मुनि की आहारचर्या को स्पष्ट करनेवाले ‘गोचरी,' 'गर्तापूरण,' 'अक्षम्रक्षण' आदि कई सार्थक नाम पाये जाते हैं। यह वास्तव में एक लोकविलक्षण चर्या है। इसमें अयाचक वृत्ति अत्यंत स्पष्ट होती है। दाता को शुद्धता का पूरा ख्याल रखना पड़ता है। उद्दिष्टाहारता का इस चर्या में स्वयं परित्याग होता है । आचार्यश्री की सावधानी का क्या कहना ? अपनी जीवनी में पू. आचार्यश्री ने जो उपवास किए उनकी सारसंख्या २५ वर्षों की होती है। जिससे महाराजजी को आहार की लिप्सा कतई नहीं थी। उद्दिष्ट आहार के विकल्पों से वे कोसों दूर थे। उत्तर भारत की जनता महाराजजी के शूद्रजल त्यागादि के व्रतों से बडी घबडाती थी। दक्षिण का वातावरण ही ऐसा है जिसमें स्वावलंबन की अधिकता होती है । सादगी विशेष होती है। उन्हीं संस्कारों की शुद्धता से महाराजजी का वर्षों पोषण होने से महाराजजी अपने व्रतों में अडिग ही रहे । विहार करते करते संघ महाकौशल प्रांत में आया। वहां के कुंडलपुरद्रोणगिरी आदि अनेक तीर्थक्षेत्रों का पावन दर्शन संघ ने किया। संघ ललितपुर आया । यहाँ आचार्यश्री ने 'सिंह-विक्रीडित' नाम का महान् दुर्धर तप किया।
उत्तर भारत की ओर विहार होने के पहले भक्तों के द्वारा एक विकल्प महाराजजी के सम्मुख आया था। दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में ज्ञानी पण्डितों की और धर्मतत्त्व के ज्ञाता विद्वानों की संख्या अधिक है। वर्षों से तत्त्वज्ञान की चर्चा भी अधिक होती रही है। शास्त्रस्वाध्याय का छोटे बडों में पुरुषवर्ग और महिलावर्ग में अच्छा होने से स्वाभाविक रूप से ज्ञान की श्रेणी अपेक्षा से अच्छी है । अधिक संभव है संघ की, साधुजनों के आचार की चर्यापद्धति की नुक्ताचीनी होती रहेगी। चारित्र की परीक्षा भी होती रहेगी। इन सारे विकल्पों का मूल एकमात्र भय ही था। बुंदेलखण्ड तो विद्वानों की, पण्डितों की खानि ही रही। और महाराजजी का विहार ससंघ इसी प्रांत में हो रहा था । अन्तरंग और बहिरंग में एकरूप स्वच्छ समता के स्वामी को भय का कारण ही नहीं था । वे निर्विकल्प ही थे। पूर्ण निर्भय थे । ज्ञान की आदान प्रदान कला में वे सिद्धहस्त थे । देशाटन, पण्डितमैत्री, शास्त्रों का मननपूर्वक अनुभवसहित अध्ययन । सभाप्रवचनों से महाराज श्री अपने ज्ञान में गौरवशाली वृद्धि कर पाये थे । अन्तरंग की स्वच्छता का पूरा बलभरोसा उन्हें था। ठीक मौके पर मुद्दे की बात को ठीक ढंग से कल्याण भावना से वे बराबर कहा करते थे। वैसे प्रसंग तो हजारों आये। फिर भी ललितपुर चौमासे की घटना जो साक्षात् गुरुमुख से स्व. श्रीमान् पण्डित देवकीनन्दजी शास्त्रीजी द्वारा सुनने को मिली अत्यधिक उद्बोधक मालूम होती और पूज्य आचार्यश्री के तलस्पर्शी मनन की, शास्त्रज्ञान की अथाह सीमा को बतलाने में समर्थ हो सकती है।
स्वयं पण्डितजी ने प्रश्न किया
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