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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ " महाराजजी ? श्रावकों के मूल गुण आठ होते हैं और उत्तरगुण बारह होते हैं। जिनका श्रावकों को सहज में स्मरण हो सकता है । मुनियों के मूलगुण २८ बतलायें उनका भी मुनियों को स्मरण संभव है; परंतु मुनियों के उत्तरगुण ८४००००० (चौरासी लाख ) बतलाये उनकी साधुओं को यादगारी कैसी होती होगी ?"
प्रश्न पेचिला था । एक तरह से अन्तर्गर्भ आक्षेप भरा भी था। प्रश्न सुनते ही महाराज श्री को खूप हंसी आयी। वे शांति से तत्काल बोले
“ पण्डितजी ? आप हमारी परीक्षा कर रहे हैं। सही बात यह है पंडितजी! आत्मा जब अपनी शुद्ध आत्मा में स्थिर होती है उस समय सबही मूलगुण और सबही उत्तरगुण वे यदि चौरासी कोटी भी होते तो उनका हिसाब आपही आप बैठ जाना स्वाभाविक होता है । उसके लिए अलग से समय की आवश्यकता नहीं होती है या प्रयत्नविशेषों की या विकल्पों की भी आवश्यकता नहीं होती है।"
___पंडितजी को इस विद्वत्तापूर्ण और अनुभवरसपरिपूर्ण उत्तर से परम संतोष हुवा जो स्वाभाविकही था। आचार्य महाराज की उत्तरपद्धति इस ही प्रकार सारगर्भित थी। यथास्थान समयोचित और समुचित होती थी। प्रवचन भी सहज स्वाभाविक प्रेरक होते थे। शब्दों का आडंबर बिलकुल नहीं होता था । कल्याण भावनाओं से ओतप्रोत होने से ही वे अत्यंत प्रभावक होते थे । बोलचाल की पद्धति का ही प्रायः अवलंब होता था।
दीप्तदीपन न्याय से देखने को मिला महाराज श्री के उपदेश से प्रभावित होकर बने हुए त्यागी मुनि ऐल्लक, क्षुल्लक, व्रती आदिकों की संख्या अच्छी ही है। संघपति का उदाहरण देते ही सर सेठ हुकुमचंदजी ने ब्रह्मचर्य व्रत का स्वीकार किया। दिवाणबहाद्दर श्रीमान् अण्णाजी बाबाजी लखूजी ने पंचाणुत्रतों का स्वीकार किया । ऐसे ही और भी सेकडों उत्साहप्रद उदाहरण देखने को मिल पाये ।
स्वर्गीय १०८ पायसागरजी महाराज आचार्य श्री को पारसमणि की उपमा देते थे । अपनी जीवनी के आधार से ही समादर की भावनों से वे अपने प्रवचनों में आचार्य श्री के विषय में गौरवगाथा गाते थे । स्व. आचार्य श्री कुंथुसागर महाराजजी आचार्य श्री के शिष्यों में से उद्भर संस्कृतज्ञ प्रवक्ता रहे जिनके द्वारा गुजराथ में विशेष प्रभावना हुई । आचार्य श्री वीरसागरजी और शिष्यपरंपरा से जो जागरण का कार्य होता रहा वह अविस्मरणीय एवं सातिशयही है।
प्राणांतिक आक्रमण से संघ ऐसे बच पाया
ता. ६ जनवरी १९३० में संघ धौलपूर स्टेट के राजाखेडा शहर में पहुंचा। तीन चार दिन तक महती धर्मप्रभावना हुई। यह धर्मप्रभावना भी एक अजैन भाई को सहन नहीं हुई। एक संगठन बन गया। लाठीकाठी तलवार, आदि शस्त्रास्त्रों के साथ करीब ५०० लोगों के आक्रमण की गुप्त योजना भी बन गयी।
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