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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ नागपूर में संघ का अपूर्व स्वागत हआ। जुलस तीन मील लम्बा निकला था। शहर के बाहर ईतवारी में स्वतंत्र ‘शांतिनगर' की रचना की गई थी। काँग्रेस के पेंडॉल से शांतिनगर का पेंडॉल कुछ छोटा नहीं था। जनता आज भी उस समय की अपूर्व घटनाओं की स्मृति से आनंद का अनुभवन करती है और स्वयं को धन्य मानती है ।
धर्मप्राण वीतरागता और विज्ञानता का पाठ मुनिचर्या ही दे सकती है। योगी की ध्यानावस्था मौनरूप से और प्रत्येक क्रिया प्रात्यक्षिक पाठ के रूप से शिक्षा देती है। चोवीस घंटे अखंड रूप से
और व्यापक रूप से, विश्वभर के लिए बिना किसी विकल्प और भेदभाव के पूर्ण निरीह वृत्ति से, अमूर्त वीतरागता उपदेशों के विना ही अपूर्व रूप से मार्तमान हो जाती थी। एकत्व-विभक्त आत्मतत्त्व का विज्ञान सूर्य-प्रकाश जैसा स्पष्ट होता ही जाता था । महामना व्याख्यानवाचस्पति स्व. पंडित देवकीनंदजी ने गौरव के साथ इसी नागपूर में भरी सभा में ठीक ही कहा था कि " हमारा संघ यह चलता फिरता यथार्थ में सच्चा
और सबसे सस्ता समस्त विश्व के लिए विश्व का वीतरागता का एकमात्र विश्वविद्यालय है और हमारे महाराज उसके पूज्य कुलगुरु हैं" यथार्थ में ऐसा ही संघ का अंतर्बाह्य भव्य प्रशस्त और निसर्गसुन्दर स्वरूप था । योगायोग की घटना है इसी समय संघपति को किसी जवाहारात के व्यापार में लाखों का लाभ होने का समाचार आया। संघपतिजी ने निर्णय किया यह सारा धन धर्मप्रभावना के लिए होगा। श्रीसम्मेदाचल में प्रतिष्ठामहोत्सव करने का शुभसंकल्प यहीं पर हुआ।
संघ की बिदाई हृदयद्रावक थी। साश्रुनयनों से श्रावकश्राविकाओं को अनिवार्य रूप से वह देनी पडी। ता. ९ जनवरी १९२८ को संघ का नागपूर छोडकर भंडारा मार्ग से विहार शुरू हुआ। छत्तीसगढ़ के भयंकर जंगलमय बिकट मार्ग से निर्बाध विहार होते हुए संघ हजारीबाग आया। बाद में फाल्गुन शुक्ला तृतीया के दिन तीर्थराज श्री सम्मेदशिखरजी सिद्ध क्षेत्र को पहुँचा ।
यहाँ पर श्री संघपतिजी के द्वारा व्यापक रूप में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव द्वारा महती धर्मप्रभावना हुई। भीड की सीमा न थी। भारत के कोने कोने से श्रावक-श्राविकाएँ अत्यधिक प्रमाण में पहुँची। इसी समय हजार से ज्यादह कपडों की झोपडीयाँ बनवायी गयी थी। धर्मशालाएँ खचाखच भर गयी।
तीर्थक्षेत्र कमेटी तथा महासभा आदि कई सभाओं के अधिवेशन भी हुए । तीर्थराज जयध्वनि से गूंज उठा था। धर्मशालाओं के बाहर भी यत्र तत्र लोग अपना अपना स्वतंत्र स्थान जमाए हुए नजर आते थे । नीचे धरती ऊपर आस्मान, पूर्ण निर्विकल्प होकर जनता प्रतिष्ठा यात्रा के उन्मुक्त आनंद रस का पान करती थी। लोग कहते हैं यात्री कहीं तीन लाख से ऊपर होंगे । अस्तु । पंडित आशाधरजी के शब्दों में कहना होगा, 'दलित-कलिलीला-विलसितम्' यही पर्वतराज का सजीव मनोहारी दृश्य था । अनेक भाषा, अनेक वेश, अनेक भूषा में व्यापक तत्त्व की एकता का होनेवाला प्रत्यक्ष दर्शन अलौकिक ही था। निर्विकल्प वस्तु के अनुभव के समय विशेष का तिरोभाव और सामान्य
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