________________
जीवनपरिचय तथा कार्य
२९ कार्य सुव्यवस्थित चलाने के उद्देश से आचार्य श्री जी की प्रेरणा से एक क्षेत्र-कमेटी बनाई गई। उसमें श्री. परंडेकर, श्री भूमकर, श्री हिराचंद अमीचंद उस्मानाबादकर, सोलापूर के श्री. ब्र. जीवराज गौतमचंद और श्री शेठ हरीभाई देवकरण आदि सम्मिलित थे। कमेटी का कारोबार चलाने के लिये सम्मति सूचक सही न करते हुये श्री परंडेकर तथा श्री भूमकर वैसे ही लौट गये। फिर भी उस समय से क्षेत्र का कार्य संचालन नये सदस्य मंडल पर सौंपा गया। तब से अब तक क्षेत्र का कारोबार सुव्यवस्थित चल रहा है । इस कार्य में उस समय के श्री. ब्र. देवचंदजी शहा (आज के प. पू. श्री १०८ समंतभद्र महाराज ) ने काफी परिश्रम उठाए। समाज को सचेत किया। समोचित तत्परतापूर्ण परिश्रमों का ही फल है श्री क्षेत्र कुंथलगिरी का शुद्ध सनातन दिगंबर जैन क्षेत्र का शुद्ध स्वरूप नजर आ रहा है।
_श्री कुंथलगिरी से संघ सावरगांव आया । वहां से सोलापूर, दहीगांव, नातेपुते, फलटण, वडगांव इत्यादि शहरों में विहार करते-करते संघ बारामती आया। यहां पंच कल्याणक प्रतिष्ठा थी । आचार्यश्री के संघ सहित आगमन से महती धर्म-प्रभावना हुई। यहाँ से संघ कोल्हापूर सांगली होकर पुन: बाहुबली (कुंभोज) पहुँचा।
श्री सम्मेदशिखरजी की ऐतिहासिक पावन यात्रा
[चलता फिरता वीतरागता और विज्ञानता का विश्वविद्यालय ] इ. सन १९२७ के मार्गशीर्ष वदी प्रतिपदा के दिन श्री सम्मेदशिखरजी क्षेत्र की वंदना और धर्म प्रभावना के उद्देश से आचार्यश्री १०८ शांतिसागर महाराजजी की विहार-यात्रा संघ सहित बाहुबली (कुंभोज ) क्षेत्र से शुरू हुई।
बम्बई निवासी पुरुषोत्तम श्रीमान सेठ पूनमचंदजी घासीलालजी और सुपुत्र गण आचार्यश्री के पास पहुँचे । उन्होंने आचार्यश्री को ससंघ श्री सम्मेदाचल यात्रा को ले चलने का संकल्प प्रगट किया ।
जिसको भी चलना हो संघ के साथ चलने के लिए खुला आमंत्रण था । लाखों का काम था । महिनों के परिश्रम का सवाल था । परंतु गौरवशाली संघपति और कुटुंबपरिवार उन्मुक्त उदारता और परिश्रमशीलता में अपना गौरव समझता था। “को हि श्रेयसि तृप्यति” यही यथार्थ है । संघ सांगली-कोल्हापूर-मिरज विहार होता हुआ हैद्राबाद स्टेट में आळंद नगरी पहुंचा । नैझाम स्टेट में से विहार यह अनहोनी बात थी। सरकारी अधिकारी भी यहाँ उपस्थित थे। उन्होंने भरी सभा में निझाम सरकार के राज्य में कहींपर भी दिगंबर साधुओं के विहार से रुकावट नहीं होगी इस प्रकार जाहीर किया । लोगों के आनंद की सीमा न थी। आळंद नगरी का रूप आनंद नगरी के रूप में परिवर्तित जान पडता था । अनंतर मुक्तागिरि होते हुए संघ नागपूर आया। विहार मार्ग में ऐसे गांव अनेकों आये जहाँपर निग्रंथ गुरुचरण का स्पर्श नहीं हुआ था । और कई भाई ऐसे थे जिन्होंने गुरुदर्शन कभी किया नहीं था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org