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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ आया है और वह अपने शरीरपर घम रहा है इसका तनिक विकल्प भी महाराजजी को नहीं था । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति की पालना किस प्रकार हो सकती है इसका यह मूर्तिमान रूप दृष्टिगोचर हुआ । महाराजजी के दर्शनार्थ जो लोग वहाँ पहुँचे थे उन्होंने यह घटना प्रत्यक्ष अपनी आंखों से देखी। वे साश्चर्य दिङ्मूढ हो बैठे रहे। वे सांप से डरते थे । सांप भी जनता से घबडाता था। महाराज का आश्रय इसीलिए उसने लिया था। महाराजजी का दिव्य आत्मबल देखकर वहाँ आये हुए यात्रियों में से प्रमुख श्रेष्ठी श्रीमान शेठ खुशालचंदजी पहाडे और ब्र. हिरालालजी बडे प्रभावित हुये। दोनों सज्जन विचक्षण थे । दक्षिण यात्रा के लिए निकले हुए यात्री थे। मिरज पहुंचने के बाद पता चला कि. निकटही दिगम्बर साधु है। इसलिए परीक्षा के हेतु वे वहाँपर पहुँचे थे। उनकी अपनी धारणा थी इस काल में साधक का होना असंभव है। भरी सभा में “क्या आपको अवधिज्ञान है ? या आपको ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त है ?" आदि वैयक्तिक आचारविषयक प्रश्न भी पूछने लगे। कुछ उलाहना का अंश भी जरूर था। सम्मिलित भक्तगणों में कुछ ऐसे जरूर थे जो इन सवालों का जबाब मुठियों से देने के लिए तैय्यार हो गये। मुनिमहाराज ने भक्तों को रोका। एक एक सवाल का जबाब यथानाम शांतिसागरजी ने शांति से ही दिया। समागत दोनों परीक्षक अत्यधिक प्रभावित हुए। उसी समय दीक्षा के लिए तैय्यार भी हो गये । महाराजजी ने ही उन्हें रोककर यात्रा पूरी करने को और कुटुंबपरिवार की सम्मति लेने को कहा। जब महाराज बाहुबली (कुंभोज) आये तब वहाँ आकर उक्त दोनों सज्जनों ने महाराजजी के पास क्षुल्लक पद की दीक्षा धारण की। दीक्षा के बाद श्री शेठ खुशालचंदजी का क्षु. 'चंद्रसागर' तथा श्री ब्र. हिरालालजी का क्षु. 'वीरसागर' नामांकन हुआ। समडोळी के चातुर्मास में आचार्यश्री के पास क्षु. वीरसागरजी ने निम्रन्थ दीक्षा धारण की । यही महाराज के प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य थे। आचार्यश्री ने आगे चलकर अपने समाधि काल में श्री वीरसागर महाराज को ही उन्मुक्त भावों से आचार्यपद प्रदान किया । श्री वीरसागरजी का दीक्षाविधि हुआ। कुछ ही समय बाद ऐल्लक नेमण्णा ने भी मुनिदीक्षा धारण की। नाम श्री ‘नेमिसागर' रखा गया ।
आचार्य पद की प्राप्ति व महत्वपूर्ण तीर्थरक्षा कार्य समडोळी ग्राम में ही सर्वप्रथम आचार्य श्री का चतुःसंघ स्थापन हुआ। अब तक केवल अकेले महाराज ही निग्रंथ साधु स्वरूप में विहार करते थे। अब संघ सहित विहार होने लगा। संघ ने उनको 'आचार्य' पद घोषित किया । आचार्य महाराज का संघपर वीतराग शासन बराबर चलता था । संघ सहित विहार करते करते महाराज कुंभोज से श्री सिद्धक्षेत्र कुंथलगिरी आये । क्षेत्रपर श्री देशभषण और कुलभूषण मुनिद्वय के चरण पादुकाओं का पावन दर्शन किया। विहारकाल का उपयोग महाराज श्री जाप्य तथा मंत्र स्मरण के लिए विशेष रूपसे कर लेते थे।
___ इस समय क्षेत्र का कारोबार श्री परंडेकर, श्री सेठ कस्तूरचंदजी और श्री रावसाहेब भूमकर तहसीलदार यथारुचि देखते थे। संस्थान की अव्यवस्था तथा संस्थान पर कर्ज का बोझ देखकर संस्थान का
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