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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
व्यक्तित्व की बहुरंगी किरणें : २६८ :
आदि लोकोत्तर भाव तो आत्मा को ज्ञानादि निज गुणों से सम्पन्न, समृद्ध करने वाले हैं। चतुर्थ भावधर्म की स्मृति अनुक्षण बनी रहे इसीलिए 'चौथमल' नाम आपको मिला और तदनुसार आपने भाववृद्धि की अमर उपलब्धि द्वारा अपना नाम चरितार्थ किया।
चौदह गुणस्थानों में चौथा गुणस्थान सम्यक्त्व है। आत्मा को बोधि या सम्यक्त्व की उपलब्धि इसी गुणस्थान में होती है। जैसे बीज की अनुपस्थिति में वृक्ष आविर्भूत नहीं होता, वैसे ही बोधि के बिना शिव-तरु का प्रादुर्भाव भी संभव नहीं है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, ज्ञान नहीं है, चारित्र चारित्र नहीं है। इस चौथे गुणस्थान को धारण कर वे सामान्य जन से सम्यक्त्वी चौथमल बने और उत्तरोत्तर आरोहण करते गये । उनके पदचिह्न अमर हैं, उनका कृतित्व अमर है, व्यक्तित्व अमर है, और उन्होंने ज्ञान तथा समाज-सेवा की जिस परम्परा का निर्माण किया है, वह अमर है।
मुझे स्मरण है कि एक दिन किसी जैनेतर ग्रामवासी ने मुझसे पूछा था क्या आप चौथमलजी महाराज के चेले हैं ? उसके इस प्रश्न से मैं श्रद्धाभिभूत हो उठा । मैंने कहा-'हाँ' । बातचीत से पता चला कि उसने अपने गांव में उनका कोई प्रवचन सुना था, जिसका प्रभाव अभी भी उसके मन पर ज्यों-का-त्यों था। ऐसे सवाल राजस्थान के कई ग्रामवासियों ने मुझसे किये हैं। अतः यह असंदिग्ध है कि वे कभी न अस्त होने वाले सूरज थे, जिसकी धूप और रोशनी आज भी हमें ओजवान और आलोकित बनाये हुए है। किंवदन्तियों-सा जन-जनव्यापी उनका व्यक्तित्व अविस्मरणीय है।
सत्संग की महिमा (तर्ज-या हसीना बस मदीना करबला में तू न जा) लाखों पापी तिर गये, सत्संग के परताप से । छिन में बेड़ा पार हो, सत्संग के परताप से ॥टेर॥ सत्संग का दरिया भरा, कोई न्हाले इसमें आनके । कट जायें तन के पाप सब, सत्संग के परताप से ॥१।। लोह का सुवर्ण बने, पारस के परसंग से। लट की भंवरी होती है, सत्संग के परताप से ॥२॥ राजा परदेशी हुआ, कर खून में रहते भरे। उपदेश सुन ज्ञानी हुआ, सत्संग के परताप से ॥३॥ संयति राजा शिकारी, हिरन के मारा था तीर । राज्य तज साधु हुआ, सत्संग के परताप से ॥४॥ अर्जुन मालाकार ने, मनुष्य की हत्या करी। छ: मास में मुक्ति गया, सत्संग के परताप से ॥५॥ इलायची एक चोर था, श्रेणिक नामा भूपति। कार्य सिद्ध उनका हुआ, सत्संग के परताप से ॥६।। सत्संग की महिमा बड़ी है, दीन दुनियां बीच में। चौथमल कहे हो भला, सत्संग के परताप से ।।७।।
-जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज
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