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: २६७ : चौथमल : एक शब्दकथा
श्री जैन दिवाकर- स्मृति- ग्रन्थ
चौथमल : एक शब्दकथा
"चौथ हर पखवाड़े हमारा द्वार खटखटाने वाली एक तिथि है । सामान्य जन इसे 'चोथ' कहता है । ज्योतिष में 'चौथ' को रिक्ता कहा गया है । जैनागमों में चारित्र को रिक्तकर कहा । इस तरह 'चौथ' और 'चारित्र' निर्जरा और निर्मलता के जीते-जागते प्रतीक हैं ।
* मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' [आगम अनुयोग प्रवर्तक, प्रसिद्ध आगम विद्वान् ]
मैंने स्व० जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज के दर्शन बृहत्साधु सम्मेलन के अवसर पर अजमेर में किये थे । यद्यपि सीमित शब्दों में उनके असीमित साधुत्व तथापि जन्मशताब्दि-वर्ष के इस पुनीत प्रसंग पर उस महान् व्यक्तित्व का लिखना मेरे स्वयं के तथा अन्य मुमुक्षु सुधीजनों के लिए श्र ेयस्कर है ।
का अंकन सम्भव नहीं है कुछ पंक्तियों में परिचय
१. सर्व साधारण की भाषा में 'चौथ' प्रतिपक्ष आने वाली एक तिथि है । ज्योतिष की भाषा में 'चौथ' रिक्ता तिथि है । जैनागमों में चारित्र को रिक्तकर कहा है । चारित्र की व्युत्पत्ति है - 'चयरित्तकरं चारित' अर्थात् अनन्तकाल से अर्जित कर्मों के चय, उपचय, संचय को रिक्त (निःशेष) करने वाला अस्तित्व चारित्र है । इस तरह चरित्र को 'चोथ' तिथि के नाम से 'मल' अर्थात् धारण करने वाले हुए श्री चौथमलजी महाराज ।
२. मोक्ष के चार मार्गों में चौथा मार्ग है तप । तप आत्मा के अन्तहीन कर्ममल की निर्जरा करने वाला है - 'भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ' । इस तरह तप की आराधना का सूचक नाम धारण करने वाले थे स्व० चौथमलजी महाराज | आपने तथा आपके तपोधन अन्तेवासियों ने बाह्याभ्यन्तर तपाराधनापूर्वक मुक्ति की राह का अनुसरण कर अपना नाम चरितार्थं किया ।
३. पाँच महाव्रतों में चौथा महाव्रत ब्रह्मचर्य है । यह महान् व्रत ही ब्रह्म ( आत्मा ) को परमब्रह्म (परमात्मा) में उत्थित करने वाला है । विश्व में यही सर्वोत्तम व्रत है । इसकी आराधना में सभी व्रतों की आराधना सन्निहित है । यह शेष महाव्रतों का कवच है, मूल है— 'पंचमहव्वय सव्वयं मूलं'। इस मूल महाव्रत के नाम से अपने नाम को सार्थक करने वाले थे स्व० श्री जैन दिवाकरजी महाराज ।
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४. धर्म के चार प्रकारों में चौथा धर्म 'भाव' है, जिसका गौरव विश्वविदित है । इसके बगैर शेष तीनों धर्म निष्फल हैं । तीर्थंकर नाम की निष्पत्ति 'भाव' से ही होती है और आत्मशोधन का मूलमन्त्र भी 'भाव' ही है; 'भाव' से ही अनन्त आत्माएँ मुक्त हुई हैं। 'भाव' की यह डगर अजर-अमर है । समुन्नत लोक-जीवन का आधार भी यही 'भाव' है । उदाहरणार्थ, गोदामों में माल भरा है । ब्याज और किराये के बोझ से व्यापारी का मन उदास है । वह प्रतिपल भाव की प्रतीक्षा में दूरभाष की ओर टकटकी लगाये बैठा है । घंटी आते ही चोंगा उठा लेता है । अनुकूल समाचार सुनकर चेहरा खिल उठता है । केवल हाथ-पैर ही नहीं उसका सारा वदन उत्साहित और सस्फूर्त हो उठता है । यह है बाजार भाव की करामात । यह हुई लौकिक भाव की बात, किन्तु औपशमिक
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