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| श्री जैन दिवाकर-म्मृति-ग्रन्थ
व्यक्तित्व की बहरंगी किरणें : २६४:
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स्थानकवासी परम्परा के गुरुदेब मुनिश्री हीरालालजी महाराज से १८ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की और पाँच महाव्रतों-"अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह" का अनुपालन पूर्ण निष्ठा के साथ करने लगे तथा क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों को क्षीण करने में जुट गये। उनकी पत्नी ने उनका बहुत पीछा किया, परन्तु बाद में चलकर उसके मोह को भंग करने में वह सफल हो गए। उनके श्वसुर तो काफी दिनों तक बन्दूक का आतंक दिखाकर उनके पीछे पड़े रहे, परन्तु मुनिश्री का निर्भीक व्यक्तित्व इस प्रकार से आतंकित होने वाला न था । निर्लिप्त भाव से वह अपने मार्ग पर चलते रहे । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, उर्दू, गूजराती, राजस्थानी, मालवी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान उन्होंने प्राप्त कर लिया था। इसके अतिरिक्त ३२ जैनागमों का तलस्पर्शी अध्ययन भी उन्होंने किया। साथ ही जैनेतर धर्मग्रन्थों-कुरान, बाइबिल, रामायण, गीता का भी पारायण किया। फिर 'पियंकरे पियवाई, से सिक्खा लद्धमरहई' शास्त्रोक्ति के अनुसार श्री चौथमलजी महाराज ज्ञानालोक विकीर्ण करने लगे।
मुनिश्री चौथमलजी महाराज 'यथा नाम तथा गुण' थे । 'चौथ' से अभिप्रेत चार में स्थित होना अर्थात् 'सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र' और तप में लीन होना तथा 'मल' का अर्थ है-चारमल्ललोभ, क्रोध, मान, माया को पराजित करने वाला। इसलिए उनका नाम चौथमल साभिप्राय एवं सार्थक था । मुनिश्री कन्हैयालालजी महाराज 'कमल' के शब्दों में, "सर्वसाधारण की.भाषा में 'चौथ' प्रतिपक्ष आने वाली एक तिथि है। जैनागमों में चरित्र को रिक्तकर कहा है। चरित्र की व्युत्पत्ति है-'चयरित्तकरं चारित्तं' अर्थात् अनन्तकाल से अजित कर्मों के चय, उपचय, संचय को रिक्त (निः शेष) करने वाला अस्तित्व चारित्र है। इस तरह चारित्र को चौथ तिथि के नाम से 'मल' अर्थात् धारण करने वाले बने श्री चौथमलजी महाराज ।" वाग्मिता के धनी
सम्यकत्वज्ञान संवलित श्री चौथमलजी महाराज एक सुविख्यात वक्ता थे-'सच्चे वक्ता' थे। सच्चे वक्ता इस अर्थ में कि जो कहते थे तदनुकूल आचरण भी करते थे-जो कहते थे वह जीते थे । जो उनके मन में होता था वही उनकी जिह्वा पर होता था, वही उनके व्यवहार में प्रवाहित होता था। जब वह प्रवचन फरमाते थे तो लोग मन्त्र-मुग्ध होकर सुनते थे। उनकी वाक्शीलता में एक माधुर्य था, आकर्षण था। उनकी सभाएं-प्रवचन-सभाएँ 'समवसरन' का दृश्य पैदा करती थीं। वहाँ 'सर्वधर्म समभाव' का सुखद वातावरण फैला होता था। जैन-अर्जन सभी उनकी बातें सुनते थे। उनके प्रवचन सदैव धर्म-सम्प्रदायातीत होते थे । वह खण्डन की नहीं, मण्डन की शैली में बोलते थे। वह तोड़ने वाले नहीं थे, जोड़ने वाले थे, कैंची नहीं सुई थे जो पृथक् जोड़ों को सीती है-मिलाती है । वह सभी को एकता एवं समन्वय के सूत्र में बाँधने वाले थे। यही कारण था कि गाँव हो या शहर-सभी स्थानों पर हजारों की संख्या में लोग उनके उपदेश सुनने आते थे । उनकी लोकातिशायिनी वक्तृत्वकला के आधार पर चतुविध संघ ने उन्हें 'प्रसिद्ध वक्ता' की उपाधि प्रदान की थी। वह स्वयं ही एक शब्द-कथा थे। "उनकी वाणी में वस्तुत: एक अद्भुतअपूर्व पारस-स्पर्श था, जो लौह चित्त को भी स्वर्णिम कांतिदीप्ति से जगमगा देता था। उनका प्रवचन अमृत हजार-हजार रूपों में बरसा था।" लोक-जीवन को प्रबुद्ध करने वाले उनके उपदेश राजा-महाराजाओं से लेकर अछुतों, भीलों, मजदूरों तक उनकी कल्याणमयी वाणी में निरन्तर पहुँचते रहे । श्री चौथमलजी महाराज जैसा वाविभूषण सरलता से नहीं मिलता। उनकी वाणी में भाव और प्रभाव दोनों थे । अतः विवेक-वाणी से प्रभावित होकर राजाओं-महाराजाओं ने हिंसा
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