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: २६५ : युग-पुरुष जैन दिवाकरजी महाराज
|| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
वृत्ति का परित्याग कर दिया था। जहां जाते लोग पलक-पांवडे बिछा देते थे। एक युगपुरुष के समान उन्होंने आत्मीयता व निर्भीकता का मार्ग प्रशस्त कर व्यक्ति और लोक दोनों का संस्कारपरिष्कार किया। एक क्रान्तदर्शी महापुरुष के व्यक्तित्व की गरिमा उनकी वाग्मिता से प्रस्फुटित होती थी।
साहित्य-मनीषी
युगपुरुष साहित्य-मनीषी श्री चौथमलजी महाराज ने अपने साहित्य के द्वारा युग-भावना को परिष्कृत किया था। उन्होंने भक्तिरसाप्यायित तथा उपदेशात्मक स्तवनों, भजनों, लावणियों की रचना की थी, जैसे-आदर्श रामायण, कृष्ण-चरित्र, चम्पक-चरित्र, महाबल चरित्र, सुपार्श्व चरित्र आदि । उधर गद्य में भी कई अच्छे ग्रन्थों का प्रणयन किया था, यथा-(१) भगवान महावीर का आदर्श जीवन, (२) भगवान पार्श्वनाथ, (३) जम्बूकुमार, (४) 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' का सम्पादन । मुनि श्री संगीतमय भक्तिगीतों के कुशल रचनाकार शिल्पी थे। उनकी आरतियों तथा भक्तिगीतों की स्वरलहरी श्रोताओं की हृदयतन्त्रियों को अविलम्ब झंकृत कर देती थी। आज भी श्रद्धानिष्ठ व्यक्ति उनके भजनों-गीतों को बड़े चाव से गाते हैं। उनके शब्दों में एक अजीब जादू भरा है, वे सीधे हृदय पर चोट करते हैं । निःसन्देह वह एक महान् साहित्य-सृष्टा द्रष्टा थे। 'गीता' और 'धम्मपद' सदृश उन्होंने 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' में आचारांग, सूत्रकृतांग, समवायांग, स्थानांग, प्रश्न-व्याकरण, उत्तराध्ययन और दशवकालिक सूत्रों से गाथाओं का सुन्दर चयन किया। यह ग्रन्थ १८ अध्यायों में विभक्त है जैसे षड्द्रव्यनिरूपण, कर्मनिरूपण, धर्मस्वरूप, आत्मशुद्धि, ज्ञानप्रकरण, सम्यक्त्वप्रकरण, धर्मनिरूपण, साधुधर्मनिरूपण, लेश्या-स्वरूप, कषायस्वरूप, मनोनिग्रह, स्वर्ग-नर्क-निरूपण और मोक्षस्वरूप आदि । 'समणसुत्तं' इसकी अगली कड़ी है। इसमें संकलित सूत्र सभी जैन-सम्प्रदायों को मान्य है।
'निर्ग्रन्थ प्रवचन' मुनिश्री की आत्मनिष्ठ अभिरुचि का प्रतिनिधित्व करता है, संकलित सम्पादित होते हुए भी ग्रन्थ उनके मौलिक विचारों को प्रतिबिम्बित करता है । 'ज्ञानप्रकरण' में लेखक की आत्मव्यथा परिलक्षित होती है। यहाँ 'उत्तराध्ययन' की कुछेक गाथाएँ संकलित हैं। आधुनिक युग में चरित्रहीनता की बाढ़ की विभीषिका से बचाने-त्राण देने के लिए 'ज्ञानप्रकरण' उत्कृष्ट रचना है । 'ज्ञानप्रकरण' (८-१०) का यह अग्रांकित उद्धरण देखिये
इहमेगे उ मण्णंति, अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरिअं विदित्ताणं, सव्व दुक्खा विमुच्चई ॥ भणंता अरिता य, बंधमोक्ख पइण्णिणो । वायाविरियमत्तण समासासंति अप्पयं । ण चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणुसासणं ।
विसण्णा पावकम्मेहि बाला पण्डिय माणिणो ॥ -अर्थात् कुछ लोग यह मानते हैं कि पाप-कर्मों का परित्याग किये बिना ही केवल आर्यतत्व के ज्ञान से ही वे सब दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर लेंगे, किन्तु जानते हुए भी आचरण नहीं करने वाले वे लोग, बन्धन और मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ, केवल शब्दों से अपनी आत्मा को सन्तोष देते हैं-आत्मप्रवंचना करते हैं। अपने आपको पण्डित मानने वाले, पापकर्मों में अनुरक्त वे मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि यह शब्द कौशल से युक्त वाणी उनकी त्राता नहीं होगी ।
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