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:२६३ : युग-पुरुष जैन दिवाकरजी महाराज
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
कामना करता है। उसके जीवन-सरोवर में प्रेम, दया, करुणा, सत्य, अहिंसा, पर-कल्याण के सुरभित सरसिज विकसित होते हैं । वह सम्पूर्ण युग को अपनी कथनी-करनी की समता से प्रभावित करता है। राजमहल से लेकर दीन-रंक की झोंपड़ी तक में उनकी वाणी के दीप कर्ण श्रवणगोचर होते हैं। उसकी रसाई शुद्र-ब्राह्मण, हिन्दू-मुसलमान, आस्तिक-नास्तिक, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष, गरीबअमीर, देश-विदेश , गाँव-शहर, सर्वत्र अबाध रूप में होती है। वह सभी लोगों को, सम्पूर्ण मानवसमाज को-लोक को-युग को साथ लेकर चलता है-सम्पूर्ण युग को प्रभावित करता है-अपने गुणों-सद्विचारों व सत्कर्मों से सम्पूर्ण जनमानस को आन्दोलित करता है; उसे सोते से जगाता है । वही युगपुरुष का अभिधान धारण करता है। उसके सदुपदेश एक जाति या वर्ग विशेष के लिए नहीं होते वे सभी को ज्ञान-संयम की ऊष्मा-तेजस्विता प्रदान करते हैं। वस्तुतः वह व्यक्ति और लोक दोनों के संस्कारक होते हैं । अपनी वक्तृता व चरित्र-सम्पदा से अनुप्रेरित करता हुआ युगपुरुष क्रांतिपुरुष होता है और जनमानस में नूतन कल्याणमयी क्रान्ति का शंखनाद करता है। वह जाति या मनुष्य का सुधारक ही नहीं अपितु सर्जक भी होता है-मानवता की अभिनव सर्जना करता है। श्री चौथमलजी महाराज इसी प्रकार के मानव-सर्जक थे। उन्होंने दुर्जन को सज्जन, हिंसक को अहिंसक, दुश्चरित्र को सच्चरित्र, पापी को पुण्यात्मा, कामुक को संयमी, दुर्व्यसनी को शीलवान, निर्दय को सदय, क्रोधी को शान्त, कृपण को उदार, संकीर्ण-बुद्धि को विशाल-बुद्धि, सुषुप्त को जाग्रत बनाने का प्रशंसनीय कार्य किया और इस प्रकार समाज की नई रचना की-एक नए वातावरण का निर्माण किया। वह जीवन-मूल्यों के हास को रोकने वाले थे तथा उनकी पुनस्थापना करने वाले थे। आध्यात्मिक सूर्योदय
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मि,
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् । जैन दिवाकर मुनिश्री चौथमलजी महाराज ऐसे आध्यात्मिक सूर्य थे जिसके उदय होते ही अज्ञानांधकार विनष्ट हो गया, हृदय की कालिमा समाप्त हो गई, जनमानस में नई स्फूर्ति एवं परोपकार के कमल विकसित हो गये। धन्य है मालव-भूमि जिसने ऐसे आध्यात्मिक महापुरुष को प्रसूत किया। मालव-स्थित नीमच (मध्यप्रदेश) में संवत् १९३४ कार्तिक शुक्ला योदशी को श्रीगंगारामजी के घर माता केसरबाई ने इस पुत्र रत्न को जन्म दिया। अल्पायु में ही उन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनकी अध्ययनशीलता, कुशाग्रबुद्धि, संगीत-प्रेम तथा उत्तम सात्विक गुणों को देखकर लोग उनके 'महापुरुष' होने की कामना करते थे। किशोरावस्था को पहुँचते-पहुँचते उनके धार्मिक संस्कार प्रबल होने लगे । संवत् १९४७ में उनके बड़े भाई कालूराम पटवारी की अकस्मात् मृत्यु से उन्हें भारी आघात पहुँचा। उन्हें यह समझने में विलम्ब न लगा कि सब प्रकार के अनर्थ-अनिष्ट का मूल लोभ है-"लोहो मूलं अणत्थाणं ।" . उनकी वैराग्यवृत्ति रात दिवस बढ़ने लगी। माता-पिता ने उनकी इस वैराग्य भावना को देखकर संवत् १६५० में प्रतापगढ़ (राजस्थान) के श्री पूनमचन्दजी की पुत्री मानकुंवर से उनका विवाह कर दिया। परन्तु यह क्या ? उनकी सुहागरात वैराग्यरात में बदल गई । बन्धु परिजन उन्हें धनोपार्जन तथा व्यापार में मन लगाने का जितना आग्रह करते उतना ही अधिक वह वैराग्यभाव में डूबे रहते । उधर साधु-संतों के शुभागमन ने उनके वैराग्य को और अधिक प्रखरता प्रदान की। अन्ततोगत्वा सं० १९५२ फाल्गुन शुक्ला पंचमी को इन्दौर स्टेट के बोलिया ग्राम में वटवक्ष के नीचे
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