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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
जैन दिवाकर पंच-पंचाशिका ( पचपनिका)
(संस्कृत-वंशस्थ ; हिन्दी - हरिगीतिका रचयिता - मुनि श्री घासीलालजी महाराज)
: २४६ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
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प्रणम्य देवा दिनुतं जिनेशं तीर्थंकरं साञ्जलि घा सिलालः । वंशस्थ वृत्त वितनोति लोकेष्वनाविलां चौथमलस्य कीर्तिम् ॥ मुनि घासिलाल जिनेन्द्र की करवन्दना विधि सर्वथा । विख्यात करता लोक में मुनि चौथमल की यशकथा ॥१॥ महात्मनां पुण्यजुषाम् शमीनां शृण्वन् यशः शुद्धर्मात लभन्ते । प्रसिद्धिरेषा जगतां हिताय प्रयत्नशीलं कुरुते मुनि माम् ॥ है ख्यात जग में ऋषिजनों की यश सुनें मति शुद्धि हो । संयत बनाती है मुझे यह लोकहित की बुद्धि हो ॥२॥ ऋतु वसन्तं समवाप्य वाटिका, विधुं यथा शारदपौर्णमासिका । व्यराजत प्राप्य तथा जगत्तलं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ ज्यों पा वसन्त को वाटिका शरदिन्दु को राका निशा । त्यों चौथमल मुनिराज से सर्वजन राजित यशा ॥३॥ मही प्रसिद्धा खलु मालवाभिधा नृपैरभूद् विक्रमभोजकादिभिः । तथैव जाता धरणी नु धन्या दिवाकरश्चौथमलेन साधुना ॥ विख्यात मालव भूमि थी उन भोज विक्रमराज से । भूलोक धन्या वह हुई श्री चौथमल मुनिराज से ॥ ४ ॥ मुनि भविष्णु जननी तनूद्भवं प्रसूय पूतं कुरुते कुलं स्वकम् । स्वकीय मात्र स यश स्तदादिशद् दिवाकर श्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ मुनि भवि सुत को जन्म दे जो कुल पवित्र करे वही । यह यश दिया निजमातुको श्री चौथमल मुनिराज ही ॥५॥ पुरातनं पुण्यफले शरीरिणाम् सुखस्य हेतुर्य विनां सदा भुवः । अभूषयल्लोकमिमं स्वजन्मना दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ था पूर्व संचित पुण्यफल संतत सुखों का हेतु था । भूषित किया निज जन्म से जो चौथमल मुनिराज था ॥ ६ ॥ महीविभूषा भुवनेषु मन्यते सभूषणा भारतवर्षतस्तु सा । अभूद् यदंशे स तु सर्व भूषणो दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ है लोक में भूषण यही भारत विभूषित भूमि है । जंह चौथमल मुनिराज भव वह सर्वभूषण भूमि है ||७|| पिताऽभवद्धन्यतमो जनप्रियः गंगायुतोयः खलु राम नामकः । निरीक्ष्य लोकेषु सुकीर्ति मौरसं दिवाकरं चौथमलं मुनीश्वरम् ॥ था पिता गंगाराम नामक धन्य सुत को देखकर | लोक में विख्यात औरस चौथमल ज्यों ऊर्णकर ॥८॥
सब
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