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| श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ||
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : २५० :
अयं महात्मा सततं जिनप्रियो जिनेन्द्रवार्ता श्रवणोत्सुकः सदा । देहात्मचितापित धीरजायत दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ।। था सतत जनप्रिय ये मुनि अहंत कथा सुनता सदा। देहात्मचितारत मनस्वी चौथमल मुनिराज था ॥ विनश्वरं पुष्कल कर्मसम्भवं देहं प्रपुष्णन् मुवमेति मानवः । इति प्रचिताज्वलनेन दीपितो दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ॥ दिन रात नश्वर देह के पोषण निरत जन हष्ट है। चिन्ता शिखा दीपित मुनीश्वर चौथमल अति श्रेष्ठ है ॥१०॥ समद्र मार्गाक्षिनवेन्दु वत्सर (१९३४) त्रयोदशी कार्तिक शुक्ल पक्षजे । खेदिने केसरबाईतोऽभवद् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ उन्नीस सौ चौंतिस त्रयोदशि शक्ल कार्तिक पक्ष में। थे हए केसरबाई के रवि दिन दिवाकर कक्ष में ॥११॥ सनेत्रबाण ग्रहचन्द्रहायने (१९५२) शुभे सिते फाल्गुन पंचमी तिथौ। व्रताय दीक्षां प्रयतो गहीतवान् दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः । बावन अधिक उन्नीस सौ फागुन तिथी सित पञ्चमी । ली थी मुनीश्वर चौथमल व्रत हेतु दीक्षा संयमी ॥१२॥ न दुर्लभा नन्दन कानने गतिः, नचाप्य शक्यो जगतः सुखोद्भवः । विवेद सम्यक्त्वमति सुदुर्लभां दिवाकरश्चौथमलो मुनीश्वरः ॥ दुर्लभ नहीं नन्दन गमन नहिं लोकसुख की प्राप्ति ही। सम्यक्त्व पाना है कठिन श्री चौथमलजी मति यही ॥१३॥ यथात्मपित्तादि वशाद विलोक्यते, सितः पदार्थोऽपि हरिद्वरागवान् । अलिस्तथैवेति विवेद सर्वथा दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ॥ ज्यों पित्त दूषित नेत्र से सित वस्तू पीला दीखता। त्यों भ्रमजनों को सर्वथा यह चौथमल था दीपता ॥१४॥ अयं महात्मा सकलेऽपि भारते स्वतेजसा धषित-दुर्गणाशयः । पद प्रणायेन मुदं समीयिवान् दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ॥ निज तेज धर्षित दुष्टजन को कर अखिल इस भुवन में । दिनकर मुनीश्वर चौथमल सुख मानता पदगमन से ॥१५॥ गणानुरागं स्वजने समानतां समस्तशास्त्रेष विवेचनाधियम । अवाप्तमत्को भवतिस्म सर्वदा दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ॥ समता जनों में राग गुण में शास्त्र में अनुशीलना। को प्राप्त करने की सदा थी चौथमल की एषणा ॥१६॥ दिनेन चाल्येन गुरोरुपासणादवाप्तविद्यागतशेमषीधनः । सविस्मयं लोकमम चकार स दिवाकरश्चौथमलो मनीश्वरः ।। थोड़े दिनों में गुरु कृपा से प्राप्त विद्या थी धनी । विस्मित जगत को कर दिया श्री चौथमल दिनकर मनी ॥१७॥
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