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:१६३: श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ
बहुमुखी प्रतिभा के धनी
4 महासती श्री पुष्पावती, 'साहित्यरत्न' जैन दिवाकर श्रीचौथमलजी महाराज बहमुखी प्रतिभा के धनी, प्रसिद्धवक्ता, विचारक, सन्तरत्न थे। मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन उदयपुर में किये और उनके प्रवचन भी सुने । उनके प्रवचनों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि वे गम्भीर से गम्भीर विषय को इस तरह सरस शैली में प्रस्तुत करते थे कि श्रोता उस गम्भीर विषय को सहज ही हृदयंगम कर लेता। उनके प्रवचनों में जैन आगम के रहस्यों के साथ वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों के सुभाषित, सूक्तियाँ, उक्तियाँ और उर्दू की शायरी तथा संगीत का ऐसा मधुर समन्वय होता था कि श्रोता कभी ऊबता नहीं, थकता नहीं था। कभी-कभी वे जैन लोक-कथाएँ, बौद्ध-कथाएँ, भी प्रस्तुत करते। उसमें सामाजिक रूढ़ियों पर, लोक धारणाओं पर करारे व्यंग्य होते जो तीर की तरह हृदय को भेदते । कभी वीर-रस की गंगा प्रवाहित होती तो कभी हास्यरस की यमुना बहने लगती और कभी शान्तरस की सरस्वती का प्रवाह प्रवाहित होता । वे वस्तुतः वाणी के जादूगर थे। उनके प्रवचनों में हिन्दू और मुसलमान, ईसाई, पारसी, सभी भेद-भाव को भूलकर उपस्थित होते और प्रवचन को सुनकर उनके हृदय के तार झनझनाने लगते । वे कहने लगते कि हमने जैन दिवाकरजी महाराज की जैसी प्रशंसा सुनी थी उससे भी अधिक उनका तेजस्वी व्यक्तित्व है। ये जैन साधु हैं, पर उनके प्रवचनों में मानवता की बातें हैं, कोई भी साम्प्रदायिक विचार-चर्चा नहीं है । सरिता की सरस-धारा की तरह उनकी वाणी का प्रवाह चलता रहता है अपने लक्ष्य की ओर । मैंने अनेक बार उदयपुर वर्षावास में उनके प्रवचन सूने । मैं स्वयं भी उनसे बहत प्रभावित हई। जैन दिवाकरजी महाराज की दूसरी विशेषता मैंने देखी कि वे एक ऊँचे साधक थे। नवकार महामंत्र के प्रति उनकी गहरी निष्ठा थी। वे जीवन के कल्याण के लिए, विचारों की निर्मलता के लिए, हृदय की शुद्धि के लिए उसका जप आवश्यक मानते थे। एक दिन वार्तालाप के प्रसंग में उन्होंने मुझे बताया--कि नवकार मन्त्र का जाप सविधि किया जाय तो उसके जप का अपूर्व आनन्द आ सकता है । जप एक साँस में करना चाहिए । जप करते समय केवल एक पद को लेना चाहिए, साथ ही उस पद के रंग का भी चिन्तन करना चाहिए। जैसे "नमो अरिहंताणं" इस पद को लें। इस पद का वर्ण है श्वेत । इस पद का स्थान मस्तिष्क है जिसे योगशास्त्र में सहस्रार चक्र कहा है। उस समय श्वास की स्थिति अन्तकुम्भक होनी चाहिए। इसी तरह "नमो सिद्धाणं" पद को लेकर भी जाप किया जाय । सिद्धों का रंग लाल बताया गया है; ध्यान करते समय लाल रंग चिन्तन रूप में रहना चाहिए । जाप करते समय ललाट के मध्य भाग में ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जिसे आज्ञा चक्र कहते हैं। सभी पद के ध्यान करते समय अन्तम्भक की स्थिति होनी चाहिए। “नमो आयरियाणं" पद का जप करते समय उसके पीले रंग की कल्पना करनी चाहिए उसका स्थान गला है जिसे विशुद्धि चक्र कहते हैं। हमारे आवेगों को यह स्थान नियन्त्रित करता है। "नमो उवझायाणं" इस पद का रंग नीला है, इसका स्थान हृदयकमल है। इसे मणिपूर चक्र कहते हैं। "नमो लोए सव्व साहणं" इस पद का रंग कृष्ण है और इसका स्थान नाभि है । इस प्रकार एक-एक पद को लेकर जप करने से मन चंचल नहीं होता तथा ध्यान और जप का विशिष्ट आनन्द आता है।" मुझे अनुभव हआ कि जैन दिवाकरजी महाराज इस सम्बन्ध के अच्छे ज्ञाता हैं।
मैं अपनी सद्गुरुणीजी विदुषी महासती श्री सोहनकुंवरजी महाराज के साथ अनेक बार
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