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श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ
वर्षावास में आपश्री के दर्शन करने गयी। खाली गयी और ज्ञान की झोली भरकर लाई वे समन्वय के सजग प्रहरी थे । जैन समाज में एकता हो यह उनकी तमन्ना थी । यही कारण है कि उन्होंने सर्वप्रथम पहल की और ब्यावर में पाँच सम्प्रदायों का एक संगठन बना, पर उस समय पाँचों सम्प्रदायों में सबसे अधिक तेजस्वी व्यक्तित्व आपश्री का ही था, पर आपश्री ने कोई भी पद या अधिकार न लेकर और दूसरों को अधिकार देकर निस्पृहता का जो ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया वह अपूर्व कहा जा सकता है ।
मैं उस स्वर्गीय महापुरुष के चरणों में अपने श्रद्धा के सुमन समर्पित करती हुई गौरव का अनुभव करती हूँ |
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जिनके पद में ....
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : १६४ :
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जिनके पद में बीता मेरा प्यारा बचपन । जिनके पद में प्राप्त हुआ महाव्रतों का धन ॥ जिनके पद में प्राप्त हुई थी विद्या रेखा | जिनके पद में मैंने नूतन जीवन देखा ॥
- कवि श्री अशोक मुनि
जिनके पद सरसिज पर, मुग्ध बना दिन रैन । वे सुरभित पद कहाँ गये, खोजें प्यासे नैन ॥ जिनके पद में होता था, सज्जन सम्मिलन । • जिनके पद में चमका था कइयों का जीवन ॥ जिनके पद में होता नव सामाजिक सर्जन । जिनके पद में होता था नूतन आकर्षण ||
जिनके पद में जन कई, कहलाते थे धन्य । आज वे ही पद तज हमें, चले गये कहीं अन्य ॥ जिनके पद रज से, कइयों ने कष्ट मिटाया । जिनके पद रज से, कइयों ने जीवन पाया ॥ जिनके पद रज से, कइयों ने अघमल खोया । जिनके पद रज से, कइयों ने अन्तर धोया ॥
तीर्थराज उन पदों पर भक्तों की थी भीड़ । "अशोक मुनि" उन पद बिना नैना बरसे नीर ॥
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