________________
श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम : १८०:
| श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्य
पवित्र प्रेरणा
प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज परम आदरणीय भारत प्रख्यात जगद्वल्लभ जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब की पावन स्मृति में आयोजित इस शताब्दी समारोह के अवसर पर मैं उस विराट लोकवल्लभ ज्योतिर्मयी चेतना के पवित्र चरणों में हार्दिक श्रद्धांजली अर्पित करता हूँ।
जैन दिवाकरजी महाराज ने पूरे जीवन संयम-साधना करते हए लोकमंगल की सर्जना की, जो युगयुग तक अविस्मत रहेगी।
झोंपड़ी से लेकर राजमहलों तक जिनशासन की कीर्तिध्वजा लहराने वाले जैन दिवाकरजी महाराज को मुलाना असम्भव है।
जैन दिवाकरजी महाराज ने जैनधर्म को लोकधर्म का स्वरूप प्रदान किया, उन्होंने इस महान् वीतराग-मार्ग को महाजन समाज से अलग अन्य वर्ग के लोगों में इसे फैलाकर भारत में जैनधर्म की व्यापक उपयोगिता को सिद्ध कर दिया।
श्री जैन दिवाकरजी महाराज ने जिनशासन की सभी सम्प्रदायों के बीच सौजन्यता स्थापित करने का बड़ा काम किया। उन्होंने ऐसे समय में ऐक्य संगठन और पारस्परिक सहयोग का बिगुल बजाया जब चारों तरफ साम्प्रदायिक कट्टरता और खंडन-मंडन का वातावरण फैला हुआ था।
उनकी इस विशेषता को हमें वर्तमान सन्दर्भ में और अधिक उत्साह के साथ अपनाने की आवश्यकता है। जैन समाज के सभी फिरके तो परस्पर स्नेह और सहयोग पूर्वक रहे ही, साथ ही स्थानकवासी समाज को अपने भीतर मजबूत एकता की स्थापना कर लेना चाहिए।
हम बहुत अधिक बिखरे हुए हैं; यह बिखराव समाज के लिए घातक बन रहा है।
हमारा स्थानकवासी समाज केवल साधु-साध्वियों के सहारे टिका है। समाज को इनका ही आधार है अतः हमारा त्यागी वर्ग जितना अधिक चारित्रवान्, आचारनिष्ठ और शास्त्रानुगामी होगा उतना ही यह समाज प्रगति करेगा। यह ज्वलन्त सत्य है जिसे एकक्षण के लिए भी नहीं भुला सकते । श्री जैन दिवाकरजी महाराज के पावन जीवन से हमें वही प्रचण्ड प्रेरणा मिले-ऐसी आशा करता हूँ।
-----------------------------0--0--0--0-0--0-0-00-5
श्री जैनदिवाकरो विजयताम्
4 उपाध्याय श्री मधुकर मुनि । धर्मोद्धार-परः सदा सुख-करो लोक-प्रियो यो मुनिः। प्राप्तं येन यशः कृता च सततं संघोन्नतिः सर्वदा ।। यस्याऽऽनन्द-करा शुभा प्रियतरा श्री चौथमल्लाऽभिधा। स श्री जैन-दिवाकरो विजयतां सिद्धि च सम्प्राप्नुयात् ।।
-------------------2
10-0-------------------------------------------
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org