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: १८१ : श्रद्धा का अर्घ्य : भक्ति-भरा प्रणाम
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श्री जैन दिवाकर- स्मृति- ग्रन्थ
मुनिवर तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई
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* रमाकान्त दीक्षित ( भिवानी )
मुनिवर, तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई ।
जप, तप, साहस, बल, संयम के सपने टूट रहे थे, पावन धर्म ध्वजा को पामर, मिलकर लूट रहे थे, धर्म - दिवाकर, तुमने बढ़कर, उनको फिर ललकारा, हमें आज भी दिशा बताते, बनकर तुम ध्रुवतारा, ग्राम-नगर की गली-गली में, रस की धार बहाई । मुनिवर, तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई || प्रेय मार्ग को छोड़ा तुमने, श्रेय मार्ग अपनाया, नया उजाला दिया जगत् को, तम का तोम भगाया, पतझड़ ने बगिया लूटी थी, फिर से फूल खिले हैं, भेद-भाव के नाग लहरते, अब तो गले मिले हैं, धर्म-नीति के गठबंधन पर गूँज उठी शहनाई । मुनिवर, तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई ॥
अब कुंठा, संत्रास, घुटन की सिमट रही है माया, ज्ञान- प्रदीप जलाकर तुमने, भ्रम का भूत भगाया, जन-जीवन के अन्तर्मन का दर्पण संवर रहा है, घर के आँगन में खुशियों का, कुमकुम बिखर रहा है, युग से भटक रही मानवता को, सोधी राह दिखाई | मुनिवर, तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई ॥
मिला तुम्हीं से गौरव हमको, जीवन को परिभाषा, अध्यात्म-गिरि पर चढ़ जाने को, जगती को नव आशा, शाश्वत ज्ञान, कर्म, भक्ति को, तुम सा पूत मिला जब, चमके नभ में चाँद सितारे, सुख का भान मिला तब, दीपित तम का कोना-कोना, ऐसी ज्योति जगाई । मुनिवर, तुमने जन-मानस में, मनहर बीन बजाई ॥
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