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________________ अपनी बात वे एकता और संगठन के प्रेमी थे। वे एकता के लिए हर प्रकार के स्वार्थों का बलिदान कर सकते थे और किया भी, किन्तु सिद्धान्तों की रक्षा करते हुए। वे एक कर्मयोगी थे । फलाकांक्षा से दूर रहकर अनपेक्ष भाव से कर्तव्य करते जानायही उनका जीवन व्रत था । आज जिस 'अंत्योदय' की बात राजनैतिक धरातल पर हो रही है, वह 'अन्त्योदय' की प्रक्रिया उन्होंने मानस-परिवर्तन के साथ अपने युग में ही प्रारम्भ कर दी थी। भील, आदिवासी, हरिजन, चमार, मोची, कलाल, खटीक, वेश्यायें-आदि उनके उपदेशों से प्रभावित होकर स्वयं ही धर्म की शरण में आये और सभ्य सुशील सात्विक जीवन जीने लगे। यह एक समाज-सुधार की चमत्कारी प्रक्रिया थी, जो उनके जीवनकाल तक बराबर चलती रही। काश ! वे शतायु होते तो जैन समाज का और अपने देश का नक्शा कुछ अलग ही होता। पीड़ित-दलित मानवता आज मुस्कराती नजर आती। एक दिन गुरुदेव कह रहे थे "मेरा उद्देश्य विराट् है, विशाल है, प्राणिमात्र की कल्याण कामना है । एक जाति के प्रति यह दृष्टिकोण बनाऊँ तो पूरी जाति को सुधार सकता हूँ परन्तु फिर दृष्टि सीमित हो जायगी, सर्वजनहिताय न रहेगी।' मैं बचपन से ही उनके सान्निध्य में रहा, बहुत निकट से उनको देखा । प्रारम्भ से ही तर्कशील वृत्ति होने के कारण उनको परखा भी, अनेक बातें पूछी थीं। उनके सम्पर्क में आने वालों की भावनाओं और वृत्तियों को भी समझा, कुल मिलाकर मेरे मन पर उनका यह प्रतिबिम्ब बना कि उनके व्यक्तित्व में समग्रता है। जीवन में सच्चाई है। खण्ड-खण्ड जीवन जीना उन्होंने सीखा नहीं था। प्रभु भक्ति भी सच्चे मन से करते थे और उपदेश भी सच्चे अन्तःकरण से देते थे। उनका श्र तज्ञान जो भी था, सत्कर्म से परिपूरित था। बस, इसीलिए उनका व्यक्तित्व चमत्कारी और प्रभावशाली बन गया । निस्पृहता और अभयवृत्ति उनके जीवन का अलंकार बन गई थी। उनकी समन्वयशील प्रज्ञा बड़ी विलक्षण थी। अपने सिद्धान्तों पर अटूट आस्था रखते हुए भी वे कभी धर्माग्रही, एकान्तदर्शी या मतवादी नहीं बने । 'सर्व धर्म समभाव' जैसे उनके अन्तर मन में रम गया। उनकी एकता, सर्वधर्म समन्वय, दिखावा, छलना या नेतृत्व करने की चाल नहीं, किन्तु मानवता के कल्याण की सच्ची अभीप्सा थी। उनके कण-कण में प्रेम, सरलता और बंधुता का निवास था। श्री जैन दिवाकर जी महाराज का जन्म हुआ था तो शायद एक ही घर में खुशियों के नगारे बजे होंगे, किन्तु जिस दिन उनका महाप्रयाण हुआ-जैन-हिन्दू, सिक्ख-मुसलमान-ईसाई तमाम कोम में उदासी छा गई। सभी प्रकार के लोगों की आंखों से आँसू बह गये। महलों से लेकर झोंपड़ी तक ने खामोश होकर सिर झुकाया । यह उनकी अखण्ड लोकप्रियता का प्रमाण था । इस वर्ष समग्र भारत में श्री जैन दिवाकरजी महाराज का जन्म शताब्दी महोत्सव मनाया जा रहा है। उनकी पावन स्मृति में भक्तों ने स्थान-स्थान पर जन-सेवा के कार्य किये हैं। विद्यालय, चिकित्सालय, निःशुल्क औषधालय, असहायों की सेवा सहायता आदि कार्य प्रारम्भ हुए हैं तथा पुराने चले आ रहे संस्थानों का पुनरुद्धार भी हआ है। इसी सन्दर्भ में मेरे मन में यह भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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