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________________ © अपनी बात सन्त का जीवन गंगा की धारा की तरह सहज पवित्र और सतत गतिशील होता है । सन्त का चरण-प्रवाह जिधर मुड़ता है, उधर के वायुमण्डल में पवित्रता और प्रफुल्लता की गन्ध महकने लगती है । जन-जीवन में जागति की लहर दौड़ जाती है। मानवता पुलक-पुलक उठती है। स्व. जैन दिवाकर गुरुदेव श्री चौथमल जी महाराज के दिव्य व्यक्तित्व की सन्निधि इसी प्रकार की थी। उनकी दिव्यता की अनुभूति और प्रतीति जिनको हुई, उनका जीवन क्रम आमूल चूल बदला गया, न केवल बदला, किन्तु पवित्रता और प्रसन्नता से गमक-गमक उठा। चाहे कोई गरीब था या अमीर, राजा था या रंक, अधिकारी था या कर्मचारी, किसी भी वर्ग, किसी भी वर्ण, और किसी भी पेशे का व्यक्ति हो, जो उनके निकट में आया, उनकी वाणी का पारस-स्पर्श किया, उसके जीवन में एक जादुई परिवर्तन हुआ, सुप्त मानवता अंगड़ाई ले उठी और वह मानव सच्चे अर्थ में मानव बन गया, मानवता के सन्मार्ग पर चल पड़ा। मेरी इस अनुभति में श्रद्धा का अतिरेक नहीं है, यथार्थ का साक्षात्कार है। मैं ही नहीं, हजारों व्यक्ति आज भी इसमें साक्ष्य हैं कि-ऐसा प्रभावशाली सन्त शताब्दियों में विरला ही होता है। उनका ज्ञान पांडित्य-प्रदर्शन से दूर, गंगोत्री के सलिल की तरह शीतल, शुद्ध और विकार रहित था। उनका दर्शन (आस्था) विशुद्ध और सुस्थिर था। वीतराग वाणी के प्रति सर्वात्मना समर्पित थे वे । विभिन्न धर्मों-दर्शनों का अध्ययन किया, अन्य दार्शनिक विद्वानों व धर्मावलम्बियों के सम्पर्क में भी रहे, पर उनकी चेतना स्वयं के रंग में ही रंगी रही, समय, परि स्थिति और भौतिक प्रभाव का रंग उन पर नहीं चढ़ा, बल्कि उनकी प्रचण्ड ज्ञान चेतना का रंग ही सम्पर्क में आने वालों पर गहराता रहा। गुरुदेव श्री के चारित्र की निर्मलता स्वयं में एक उदाहरण थी। विवाह करके भी जो अखंड ब्रह्मचारी रह जाये उसके आत्म-संयम की अन्य कसौटी करने की अपेक्षा नहीं रह जाती। जम्बूस्वामी की तरह सुहागरात को ही 'विराग रात' बनाने वालों की चारित्रिक उज्ज्वलता का क्या वर्णन किया जाय । श्री जैन दिवाकरजी महाराज की आत्म-शक्ति अद्भुत थी। उनकी समग्र अन्तश्चेतना जैसे ऊर्ध्वमुखी हो गई थी। वाणी और मन एकाकार थे। वे आगम की भाषा में-- जोगसच्चे, करणसच्चे, भावसच्चे-थे। मन से, वचन से, काया से सत्य रूप थे। वे सत्य को समर्पित थे। करुणा उनके कण-कण में रम चुकी थी। उनकी अहिंसा-जागत थी। इसलिए अन्ध-विश्वास उनके समक्ष टिके नहीं, क्रूरता उनकी वाणी से काँप उठी थी, हिंसा की जड़ें हिल चुकी थीं। - वे समदर्शी थे। धर्म और साधना के क्षेत्र में किसी भी प्रकार के भेदभाव, ऊँच-नीच की परिकल्पना उनकी प्रकृति के विरुद्ध थी। महलों की मिठाई की अपेक्षा गरीब की रोटी उन्हें अधिक प्रिय थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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