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इस
कि वे गृहस्थ बन जाय अन्यथा उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाय । इस आज्ञा से सर्वत्र खलबली मच गई। कोई देश देशान्तर गये और कई भूमिगृहों में छिप गए । समय जैन शासन में आपके सिवा कोई ऐसा प्रभावशाली नहीं था जो सम्राट के पास जाकर उसकी आज्ञा रद्द करवायै । आगरा संघ ने आपको पधार कर यह संकट दूर करने की प्रार्थना की। सूरिजी पाटण से आगरा आकर बादशाह से मिले और उसका हुक्म रद्द करवाके साधुओं का विहार खुला करवाया । सं० १६६६ का चौमासा आगरा किया। इस चोमासे में बादशाह से सूरिजी का अच्छा संपर्क रहा और शाही दरबार में भट्ट को शास्त्रार्थ में परास्तकर "सवाई युगप्रधान भट्टारक" नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की ।
चातुर्मास के पश्चात् सूरिजी मेड़ता पधारे। बीलाड़ा के संघ को विनती से आपने बिलाड़ा चातुर्मास किया। आपके साथ सुमति कल्लोल, पुण्यप्रधान मुनिवल्लभ, अमीपाल आदि साधु थे । पर्युषण के बाद ज्ञानोपयोग से अपना आयु शेष जान कर शिष्यों को हित शिक्षा देकर अनशन कर लिया । चार प्रहर अनशन पाल कर आश्विन बदि २ के दिन स्वधाम पधारे। आपकी अंत्येष्टि बाणगंगा के तट पर बड़े धूम धाम से की गई। अग्नि प्रज्वलित हुई और देखते-देखते आपकी पावन तपः पूत देह राख हो गई पर आपकी मुखवस्त्रिका नहीं जली। इस प्रकट चमत्कार को देख कर लोग चकित हो गए सूरिजी के अभिसंस्कार स्थान में स्तूप बना कर चरण प्रतिष्ठा की गई । आपके पट्ट पर आचार्य श्री जिन सिंहसूर बैठे 1
महान् प्रभावक होने से आप जैन समाज में चौथे दादाजी नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके चरणपादुका, मूर्तियां जेसलमेर बीकानेर, मुलतान, खंभात, शत्रुंजय आदि अनेक स्थानों में प्रतिष्ठित हुई। सूरत, पाटण, अहमदाबाद भरौंच, भाइखला आदि गुजरात में अनेक जगह आपकी स्वर्ग तिथि 'दादा दूज' कहलाती है और दादावाड़ियों में मेला भरता है ।
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सूरिजी के विशाल साधु साध्वी समुदाय था । उन्होंने ४४ नंदि में दीक्षा दी थी, जिससे २००० साधुओं के समु दाय का अनुमान किया जा सकता है। इनके स्वयं के शिष्य ६५ थे । प्रशिष्य समयसुंदरजी जैसों के ४४ शिष्य थे । और इनके आज्ञानुवर्त्ती साधु सारे भारत में विचरते थे। आपने स्वयं राजस्थान में २६, गूजरात मैं २०, पंजाब में ५ और दिल्ली आगरा के प्रदेश में ५ चातुर्मास किये थे ।
उस समय खरतरगच्छ की और भी कई शाखाएं थीं जिनके आचार्य व साधु समुदाय सर्वत्र विचरता था । साध्वियों की संख्या साधुओं से अधिक होती है अतः समूचे खरतरगच्छ के साधुओं की संख्या उस समय पांच हजार से कम नहीं होगी ।
आप स्वयं विद्वान थे और आपके साधु समुदाय ने जो महान् सहित्य सेवा की है इसका कुछ विवरण हमने "युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि" ग्रन्थ में स्वतंत्र प्रकरण में दिया है तथा आपके शिष्य - शिष्य व आज्ञानुवर्त्ती साधुओं का भी यथाज्ञान विवरण दिया गया है । आपका भक्त श्रावक समुदाय भी बहुत ही उल्लेखयोग्य रहा है जिन्होंने मंदिर - मूर्ति निर्माण, संघयात्रा, ग्रन्थलेखन और शासन - प्रभावना में अपने न्यायोपर्जित द्रव्य का दिल खोल के उपयोग किया ।
आपके भक्त श्रावकों में मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र उस समय के बहुत बड़े राजनीतिज्ञ, महान् दानी, धर्म-प्रिय एवं गुरु- भक्त थे, जिन्होंने जिन सिंहसूरि के पदोत्सव में सवा करोड़ का दान देकर एक अद्वितीय उदाहरण उपस्थित किया । उनके सम्बन्ध में जयसोम ने 'कर्मचन्द्र मंत्रिवंश प्रबन्ध' एवं उनके शिष्य गुणविनय ने उसपर वृत्ति तथा भाषा में रास की रचना कर अच्छा प्रकाश डाला है ।
इसी प्रकार पोरवाड़ जातीय अहमदाबाद के संघपति सोमजी भी बड़े धर्म निष्ट थे । उन्होंने अहमदाबाद के कई पोलों में जैनमंदिरों के निर्माण के साथ-साथ शत्रुंजय का बड़ा संघ निकाला एवंव हां खरतर वसही में विशाल चौमुख जिनालय का निर्माण कराया, जिसकी प्रतिष्ठा उनके पुत्ररूपजी
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