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शिलालेखादि से प्रमाणित है कि सूरि महाराज के उपदेश चातुर्मास किया, फिर अहमदाबाद आकर माघसुदि १० को से सम्राट ने सब मिलाकर वर्ष में छः महीने अपने राज्य में धनासुतार की पोल में, शामला की पोल में ओर टेमला की जीवहिंसा निषिद्ध की तथा सर्वत्र गोबध बंद कर गोरक्षा पोल में बड़े समारोह से प्रतिष्ठा करवायी। सं० १६५४ में की और शत्रुञ्जय तीर्थ को करमुक्त किया। शनुंजय पधार कर मिती जेठ शु० ११ को मोटी-टुं क-विमल
जहांगीर की आत्मजीवनी, डा० विन्सेष्ट ए. स्मिथ, वसही के सभा मण्डप में दादा श्री जिनदत्तसूरिजी एवं श्री पुर्तगाली पादरी पिनहेरो व प्रो० ईश्वरीप्रसाद आदि के जिनकुशलसूरि जी की चरणपादुकाएं प्रतिष्ठित की । वहां से उल्लेखों से स्पष्ट है कि सूरिजी आदि के सम्पर्क में आकर आकर, अहमदाबाद में चातुर्मास किया। सं० १६५५ का अकबर बड़ा दयालु हो गया था । सम्राट के दरबारी व्यक्ति चौमासा खंभात किया। सम्राट अकबर ने बुरहानपुर में सूरिजी अबुलफजल, आजमखान, खानखाना इत्यादि पर भी सूरिजी को स्मरण किया। फिर ईडर इत्यादि विचरते हुए अहमदाबाद का बड़ा प्रभाव था। धर्मसागर उपाध्याय के ग्रन्थ, जो आये। यहां मन्त्री कर्मचन्द का देहान्त हुआ। संवत कई बार अप्रमाणित ठहराये जा चुके थे, फिर प्रवचन- १६५७ पाटण चातुर्मास कर सीरोही पधारे, वहां माघ परीक्षा ग्रन्थ का विवाद छिड़ा जिसे अबुलफजल की सही सुदि १० को प्रतिष्ठा की। सं० १६५८ खंभात, १६५६ से निकाले हुए शाही फरमान से निराकृत किया जाना अहमदाबाद, सं० १६६० पाटण, सं० १६६१ में महेवा प्रमाणित है।
चातुर्मास किया । मिती मि०कृ ५ को कांकरिया कम्मा के सम्राट ने सूरिजी से पंचनदी के पांच पीरों-देवों को द्वारा प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख है । सं० १६६२ में बीकानेर वश में करने का आग्रह किया क्योंकि जिनदत्तसूरि के पधारे । चैत्र कृष्ण ७ के दिन नाहटों की गवाड़ स्थित शत्रुञ्जयाकथा प्रसंग से वह प्रभावित था। सूरिजी सं. १६५२ का वतार आदिनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा करवायी। सं० चातर्मास हापाणा करके मुलतान पधारे और चन्द्रवेलि १६६३ का चातुर्मास बोकानेर में हआ। सं० १६६४ पत्तन जाकर पंचनदी के संगम स्थान में आयंबिल व बैशाख सदि ७ को फिर बीकानेर में प्रतिष्ठा हई। संभवतः अष्टमतप पूर्वक पहुँचे।
यह प्रतिष्ठा महावीर स्वामी के मन्दिर की हुई थी। सूरिजी के ध्यान में निश्चल होते ही नौका भी निश्चल सं १६६४ का चातुर्मास लवेरा में हुआ। जोधपुर हो गई। उनके सूरि-मंत्र जाप और सद्गुणों से आकृष्ट होकर से राजा सुरसिंह वन्दनार्थ आये। अपने राज्य में सर्वत्र पांचनदी के पांच पीर, मणिभद्र यक्ष, खोड़िया क्षेत्रपालादि सूरिजी का वाजित्रों में प्रवेश हो, इसके लिए परवाना जाहिर सेवा में उपस्थित हो गये और उन्हें धर्मोन्नति-शासन प्रभावना किया। सं० १६६५ में मेड़ता चातुर्मास बिताकर अहमदामें सहाय्य करने का वचन दिया।
बाद पधारे। सं १६६६ का चातुर्मास खंभात किया । सूरिजी प्रात:काल चन्द्रवेलि पत्तन पधारे । घोरवाड़ सं १६६७ का चातुर्मास अहमदाबाद में करके सं १६६८ का साह नानिग के पुत्र राजपाल ने उत्सव किया। वहां से चातुर्मास पाटण में किया। उच्चनगर होते हुए देरावर पधारे और दादा साहब श्री इस समय एक ऐसी घटना हुई जिससे सूरिजी को वृद्धाजिनकशलसूरिजी के स्वर्ग-स्थान की चरण-वंदना की। वस्था में भी सत्वर विहार करके आगरा आना पड़ा। बात तदनंतर श्री जिनमाणिक्यसूरिजी के निर्वाण-स्तूप और नवहर यह थी कि जहांगीर का शासन था, उसने किसी यति के पुर पार्श्वनाथ को यात्रा कर जेसलमेर में सं० १६५३ का अनाचार से क्षुब्ध होकर सभी यति-साधुओं को आदेश दिया
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