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आशीर्वचन
श्रात्महित के साधनों में शाश्वत साधन श्रुतज्ञान है, जो किसी पात्र विशेष की अपेक्षा रखता है । २०वीं शताब्दी में धारणामतिज्ञान के और श्रागमानुकूल भावात्मक श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विशिष्ट उपलब्धि सरस्वतीपुत्र स्व. पं. रतनचन्दजी मुख्तार को थी। इस ज्ञानोपयोग की उपलब्धि का सदु पयोग कर उन्होंने प्राय: करणानुयोग के शुद्ध प्रकाशन में सहयोग देकर तथा शंकाओं के सप्रमाण समाधान लिखकर जो अद्वितीय योगदान जैन समाज को दिया है, वह चिरस्मरणीय रहेगा ।
पूर्वं भवों में विनयपूर्वक पढ़े हुए श्रुतज्ञान के संस्कारों के फलस्वरूप अल्पवय में ही करणानुयोग (धवल, जयधवलादि) को हृदयङ्गत करने वाले तथा गुरुभक्ति में एकलव्य की समानता रखने वाले पं० जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डर ने शंकायों का समाधान पाने हेतु श्री रतनचन्दजी से पत्र व्यवहार किया। उनसे प्राप्त समाधानों से आप बहुत ही सन्तुष्ट एवं प्रभावित हुए और परोक्ष में ही सदा-सदा के लिए शिष्यत्व भाव से उनके प्रति समर्पित हो गये ।
शिक्षागुरु प. पू. आ. कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज और विद्यागुरु प. पू. ( आचार्य ) १०८ श्री अजित सागरजी महाराज का ससंघ वर्षायोग सन् १९७९ में निवाई ( राजस्थान) में था। पं० रतनचन्दजी मु० भी आये हुए थे। अचानक श्री जवाहरलालजी भीण्डर से वहाँ पहुँचे। पं० रतनचन्दजी सामने ही बैठे थे, किन्तु प्रत्यक्ष परिचय न होने के कारण श्री जवाहरलालजी पूछ रहे थे कि गुरुजी कहाँ हैं ? गुरु-शिष्य के प्रत्यक्षीकरण की उस बेला में भक्ति रस का जो प्रवाह बहते हुए देखा उससे मेरा हृदय गद्गद हो गया और मन ने कहा कि गुरु के प्रति इस प्रकार की निश्छल भक्ति हो श्रुतज्ञानावरण के विशेष क्षयोपशम में कारण बनती है ।
सम्भवतः सन् ८०-८१ में भक्तिरस से सराबोर 'रतनचन्द्र मु. अभिनन्दन ग्रन्थ' की पाण्डुलिपि मेरे पास आई । उसे देखकर मुझे लगा कि श्री जवाहरलालजी की श्रद्धा एवं भक्ति की अपेक्षा तो यह संकलन प्रति सुन्दर है किन्तु करणानुयोग के मर्मज्ञ विद्वान के अनुरूप नहीं है ।
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