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श्री जवाहरलालजी का सत्प्रयत्न सराहनीय तो है, किन्तु अभी इसे करणानुयोगरूपी कुन्दन बनाने के लिए अनेक ताव देने की आवश्यकता है और वे ताव शास्त्रों की संयोजना के कुशल शिल्पी श्री चेतनप्रकाशजी पाटनी के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं दे सकता । मैंने यह सुझाव श्री जवाहरलालजी को दिया, तत्काल पाण्डुलिपि जोधपुर भेज दी गई । मेरी भावना के अनुरूप पूरे तावों के माध्यम से संस्कारित होकर यह जैनागम की प्रपूर्व कुञ्जी प्राप्त हुई है ।
पं० जवाहरलालजी शास्त्री के अवाय एवं धारणा मतिज्ञान के क्षयोपशम की प्रकृष्टता प्रायः अपने गुरु (श्री रतनचन्दजी मु० ) के सदृश ही है, किन्तु शरीर अत्यन्त कमजोर है, फिर भी श्रागमनिष्ठा और गुरुभक्ति की शक्ति से जो अथक परिश्रम उन्होंने किया है, वह अत्यन्त सराहनीय है ।
डॉ० चेतनप्रकाशजी पाटनी के विषय में मैं क्या लिखू ? संशोधन की सूक्ष्मदृष्टि, विषयों की यथायोग्य संयोजना एवं ग्रन्थ के हार्द को (अर्थ से भरे हुए) अल्पाक्षरों में गुथ देने की क्षमता, ग्रन्थ- सम्पादन की ऐसी श्रीर भी अनेक विशेषताएँ उनकी उन्हीं में हैं। उनके अध्ययन कक्ष पर कार्यदक्षता का ऐसा कड़ा पहरा रहता है कि आलस्य, प्रमाद प्रादि वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते । शारीरिक और मानसिक परिश्रम के लिये वे अनुकरणीय हैं। यही कारण है कि उनके सम्पादकत्व में निकलने वाला प्रत्येक ग्रन्थ अपने आपमें अनूठा ही होता है ।
सम्पादकद्वय के अथक परिश्रम की सराहना करती हूँ और ये सरस्वतीपुत्र शीघ्र ही अक्षयज्ञान प्राप्त करें ऐसी मंगलकामना करती हूँ ।
इस अनुपम ग्रंथ के माध्यम से अनेक भव्य जीवों को सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।
भद्रं भूयात् ।
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- प्रा० विशुद्धमती दि० ९-२-१९८६
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