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श्राशीर्वचन
सन् १९८० में परम पूज्य प्रातःस्मरणीय आचार्यकल्प श्री १०८ श्रुतसागरजी महाराज के मंगलमय चरण- सान्निध्य में श्री जवाहरलालजी सिद्धान्तणास्त्री, भीण्डर अपने मन में वर्षों की एक साध लेकर आये और उन्होंने अपनी भावाभिव्यक्ति की उसी भावाभिव्यक्ति पर समीचीन मार्गदर्शन प्राप्त हुआ परम पूज्य प्राचार्य कलथी का तथा इस महदनुष्ठान में सहयोगी बने सम्पादनकलादक्ष डॉ० चेनप्रकाजजी पाटनी, जोधपुर ।
आचार्यकल्पश्री के सम्यक् मार्गनिर्देशन और सम्पादकद्वय की अनिश निष्ठापूर्ण लगन से ही (सन् १९५६ मे १९७८ तक के जैन अखबारों में शंका समाधान के रूप में मुख्तार सा. का जो विशाल कृतित्व संकलन, अनुयोगक्रम से विभाजन और कुशल सम्पादन होकर दुरुहूतम कार्य सम्पन्न हो सका ।
उसका
विशालकाय ग्रन्थ को देखकर ही सम्पादन कार्य के कठोर परिश्रम को समझा जा सकता है। इतने लम्बे समय तक सम्पादकों के धैर्यपूर्वक अनथक परिश्रम के प्रतिफलरूप में यह अनूठी कृति तत्वजिज्ञासु एवं विद्वद्जगत् के सम्मुख उपलब्ध हो सकी है। यह ग्रन्थ मुस्तार सा. के व्यक्तित्व की झलक के साथ-साथ उनके कृतित्व को उजागर करने में पूर्णता को भले ही प्राप्त न हो, किन्तु अक्षम तो कदापि नहीं है ।
जैन जगत् को अनुपम कृति के रूप में पं. रतनचंद जैन मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व' ग्रंथ प्रदान करने के लिये स्व. प्रा. क. श्री के सम्यक मार्गनिर्देशन के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ एवं सम्पादक द्वय के प्रति मंगलकामना करता है कि वे इसी प्रकार अनुपम कार्य करते रहे तथा सरस्वती पुत्र मरण तपारगामी बनकर शीघ्र ही केवल ज्ञान लक्ष्मी के भाजन बनें ।
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तत्वजिज्ञासु जन इस अनुपम सन्दर्भ ग्रन्थ से चतुरनुयोग सम्बन्धी अपनी जिज्ञासायों एवं शंकाओं को शान्त कर अनेकान्तमय जिनागम के प्रति समीचीन श्रद्धा प्राप्त करें, यही भावना है।
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- मुनि वर्धमानसागर
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