SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] अध्यवसायी विद्वान् * श्री भँवरलाल जैन न्यायतीर्थ सम्पादक, 'वीर वाणी' जयपुर-४ स्व० पण्डितप्रवर रतनचन्दजी मुख्तार उन सिद्धान्त-मर्मज्ञों में से एक थे जिन्होंने बिना कोई डिग्री पास किये और बिना किसी विद्यालय में नियमित धार्मिक शिक्षण प्राप्त किये-अपने अनवरत स्वाध्याय के बल पर जैन सिद्धान्त के उच्च कोटि के विद्वानों में अपना स्थान बनाया था । उर्दू और अंग्रेजी के माध्यम से मेट्रिक व मुख्तारगिरी की परीक्षा पास कर कोर्ट कचहरी में काम करने वाला व्यक्ति कभी जैन विद्वानों की कोटि में बैठ सकेगा, ऐसी आपके अभिभावकों या मित्रों की भी कल्पना नहीं थी । परन्तु माता-पिता से विरासत में प्राप्त प्रतिदिन स्वाध्याय और जिनपूजन की प्रवृत्ति ने इन्हें धार्मिक ज्ञान का पिपासु बनाया और इस जिज्ञासा के कारण विभिन्न विद्वानों की संगति में आप बैठने लगे बाबा भागीरथजी वर्णी, पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी, पं० मारणकचन्दजी कौन्देय आदि के संसर्ग में ग्राकर और प्रेरणायें प्राप्त कर निरन्तर स्वाध्याय करते रहे । जैन तत्त्व ज्ञान का ऐसा चस्का लगा कि अपनी मुख्तारगिरी छोड़ बैठे और ज्ञानप्राप्ति में लग गये । दिगम्बर साधुत्रों के चातुर्मासों में काफी समय आपने दिया और साधु वर्ग के साथ भी गहन अध्ययन किया । । आप परम्परागत प्राचीन पीढ़ी के इने गिने विद्वानों में थे । मेरा आपसे कोई घनिष्ट सम्पर्क तो नहीं हुआ; किन्तु एक पत्र के सम्पादक होने के कारण समाज के प्रायः सभी लेखकों और विद्वानों से थोड़ा बहुत परिचय प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में रहता है । वैसे दो-चार बार आपसे मिलना भी हुआ। शांतिवीरनगर श्रीमहावीरजी से प्रकाशित होने वाले कई ग्रन्थों के सम्पादन में आपका सहयोग रहा था। एक बार आगम-अध्ययन प्रारम्भ कर लेने के बाद यावज्जीवन आपके एवं आपके अनुज पं० नेमिचन्दजी के अध्ययन व पठन-पाठन एवं चर्चा बराबर चालू रहे । हाल ही में क्षपणासार की एक और अप्रकाशित टीका आपके पास भिजवाई थी। जिसे देखकर आपने प्रकाशन की प्रेरणा दी थी । [ ४१ ऐसे लगनशील व्यक्ति की स्मृति में ग्रन्थ प्रकाशित करना एक उचित, आवश्यक और प्रेरणादायक कार्य है । लगभग ७६ वर्ष की आयु में ( २८ नव० सन् ८० की रात्रि को ) वे इस संसार से चल बसे । उनके देहान्त के समाचार सुनकर सभी जिनमार्गियों को गहन दुःख हुआ । ऐसी विभूति के अभाव का पूरक शायद ही कोई हो । उन्हें मैं हृदय से वन्दन करता हुआ; उनके लिये यथा योग्य, यथा शीघ्र परमधाम प्राप्ति की कामना करता हूँ । ज्ञान और चरित्र के धनो * श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन सरोज, जावरा ( म० प्र० ) मुझे यह जानकर अतीव आह्लाद हुआ कि निकट भविष्य में ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार, सहारनपुर की स्मृति में उनकी धार्मिक-सामाजिक सेवाओं के उपलक्ष्य में, एक ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है। विज्ञान की बीसवीं शताब्दी, विचार के इस बिन्दु से भी गौरवान्वित रहेगी कि इस सदी में बहुत से उच्चकोटि के बिद्वान् हुए, जिन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy