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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अपनी असीम विद्वत्ता से देश और समाज को विस्मित किया और कृतज्ञ समाज ने उनके उपकारों के ऋण से उऋण होने के लिए उनके कृतित्व को पुरस्कृत-अभिनन्दित करने हेतु उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ग्रन्थ प्रकाशित किया।
ब्र० रतनचन्दजी मुख्तार प्राचीन परम्पराओं के प्रतिनिधि विद्वान् थे। वे वर्षों तक 'शास्त्रि परिषद' के अध्यक्ष रहे। 'शंका समाधान' स्तम्भ के लेखक के रूप में उनकी ख्याति रही। 'अकाल मरण', 'पुण्य तत्त्व का विवेचन' जैसी पुस्तकें उन्हें गम्भीर ज्ञान और उज्ज्वल चरित्र का धनी सिद्ध करती हैं। साधुसंघों में सम्मिलित होकर साधुजनों को स्वाध्याय का लाभ भी उन्होंने दिया था।
उनका स्मरण मेरी दृष्टि में उस ज्ञान और चरित्र का स्मरण है, जिसकी आधुनिक भौतिकवादी विश्वसमाज को अत्यन्त आवश्यकता है। मांगलिक आयोजन की दिशा में मेरी सद्भावनायें आपके साथ हैं।
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विनयाञ्जलि * धर्मालंकार पं० हेमचन्द्र जैन शास्त्री, अजमेर
विश्ववंद्य १००८ भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण को ढाई हजार वर्ष से ऊपर व्यतीत हो चुके हैं। पूज्यवर गौतमादि गणधरादि महर्षियों के द्वारा श्रुत की परम्परा इतने समय तक अक्षुण्ण चली आई। मस्तिष्क से मस्तिष्क की श्रुताराधना जब विच्छिन्न होने लगी तब पूज्यपाद धरसेनाचार्य व उनके शिष्यों के द्वारा सूत्र व सिद्धान्त ग्रन्थों का लिपिबद्ध होना प्रारम्भ हुआ और श्रुतावतार की निर्मल धारा में अनेक मनीषी आचार्यों ने आप्लावन कर अपने श्रुतज्ञान को निर्मल किया।
आत्मशुद्धि के लिये स्वाध्याय दीर्घकालीन रुचिकर प्रणाली है। ध्यान की एकाग्रता भी श्रुतचिन्तन से ही होती है । ज्ञानी साधुगण इस परम तप के द्वारा ज्ञानध्यान में लवलीन होते हैं और इसी श्रु ताराधना द्वारा संवरनिर्जरा करते हुए निर्वाण प्राप्त करते हैं ।
बुद्धि-बल व पराक्रम की क्षीणता के साथ ग्रन्थ-प्रणयन की पद्धति प्रचलित हुई और दक्षिणापथ के यशस्वी, मनीषी सरस्वती पुत्रों द्वारा सिद्धान्त ग्रन्थों का प्रणयन हुआ और अनेक गूढ़ वृत्तियाँ रची गईं। गुरु प्रणीत रचनाओं का उनके शिष्य वर्ग द्वारा अनेकशः पारायण हुआ। वे लिपिबद्ध तो हुई पर जनसाधारण द्वारा हृदयंगम नहीं की जा सकीं। अतएव जिज्ञासु समर्थ शासकों के द्वारा आचार्यों से निवेदन करने पर गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार जैसे ग्रन्थों की उपलब्धि हुई। साधु वर्ग के साथ-साथ श्रावकों को भी इस अमृत का साररूप अंश पान करने को मिला जिससे गम्भीर शास्त्र अध्येता अनेक विद्वानों का उदय हुआ। दुःखद स्थिति यह है कि इस पीढ़ी के सभी विद्वान् आज हमारे बीच में नहीं हैं ।
१० सिद्धान्ताचार्य स्व० पं० रतनचन्दजी साहब मुख्तार इस विद्वत् शृखला की एक कड़ी थे। मैंने दि० जैन जम्बू विद्यालय, सहारनपुर में अध्ययन करते समय आपके एवं आपके भाई सा० के दर्शन किये थे, नाम मात्र से परिचित था। इस प्रथम दर्शन के बाद तो आपका समागम परम पूज्य आचार्यकल्प १०८ श्रुतसागरजी महाराज के सान्निध्य में किशनगढ़, अजमेर, निवाई, सुजानगढ़, मेड़ता आदि राजस्थान के अनेक धर्मस्थलों पर हुआ। चातर्मासों में आप संघ में ही स्वाध्याय-चिन्तन करते थे । धवला आदि ग्रन्थों के पारायण में ही आप सदा दत्तचित्त रहते थे। आज आप सहश करणानुयोगी विद्वान् समाज में बिरले ही हैं।
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