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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
किशनगढ़-रेनवाल में दिसम्बर १९७४ में आचार्यकल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा की प्रार्थना की, तो सूचना पाकर आपने मुझे लिखा "आपके पिताजी क्षुल्लक दीक्षा ले रहे हैं, बहुत हर्ष की बात है।........कम से कम एक पण्डित तो इस दिशा में आगे बढ़ा।" धुवं कुज्जा तवयरणं गारगजुत्तो वि' इस आगमोक्ति में आपका पूर्ण विश्वास था।
__ आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज के संघ का १९७८ का चातुर्मास आनन्दपुर कालू में हुआ था। गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) के संशोधन हेतु आप भी पधारे थे। मैं भी संघ के दर्शनार्थ पहुँचा था, आपने प्रेरणा की थी कि किसी दीर्घ अवकाश में करणानुयोग के ग्रन्थों के स्वाध्याय हेतु सहारनपुर आ जाओ; परन्तु विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के कारण विगत वर्षों में ग्रीष्मावकाश का लाभ ही नहीं मिल सका। तथा अब वह ज्योति कहाँ रही?
कालू से बलूदा होते हुए नीमाज ( पाली-राजस्थान ) के मार्ग में चलते-चलते ही पूज्य १०८ श्री समतासागरजी महाराज (पं० महेन्द्रकुमार पाटनी ) के निधन के समाचार पाकर आपने ७-१२-७८ को मुझे लिखा
"इस प्रकार देहावसान की अनेक घटनाएँ होती हैं। दुःख तो इस बात का है कि मैं उनकी सेवा न कर । वास्तव में, वे समता के सागर थे। उनके उपदेश का प्रभाव पड़ता था और साधारण मनुष्यों को भी उनके उपदेश को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। इन घटनाओं से भी हमारी आँख नहीं खुलती। हम अपने आपको अमर माने हए हैं। इस वृद्ध व अस्वस्थ अवस्था में भी परिग्रह त्याग के भाव नहीं होते; किन्तु हर समय उसकी रक्षा की चिन्ता रहती है। आत-रौद्र परिणामों से अपनी हानि नहीं मानते; किन्तु परिग्रह की हानि से अपनी हानि मानते हैं।"
पण्डितजी का यह आत्मालोचन प्रेरणास्पद है। आगे लिखते हैं
"वृद्ध अवस्था है । अब स्वास्थ्य की चिन्ता करना या बात करना व्यर्थ है ।
लब्धिसार, क्षपणासार की ३५० गाथाएँ हो चुकी हैं, ३०० शेष हैं; वे भी दो तीन माह में पूर्ण हो जावेंगी। यदि आयु शेष रही तो जीवकाण्ड का कार्य आरम्भ करूंगा। गोम्मटसार कर्मकाण्ड प्रेस में जा चुका है, उसकी विषयसूची व विशेष शब्द-सूची बनानी है।"
"अंतो पत्थि सुईणं कालो, यो ओ वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियध्वं, जं जरमरणं खयं कुणइ ॥"
श्रुतियों का अन्त नहीं है, काल अल्प है और हम दुर्मेध हैं, इसलिए वही मात्र सीखने योग्य है कि जो जरामरण का क्षय करे।
यह अत्यन्त प्रशंसा एवं गौरव की बात है कि स्व० पूज्य पण्डितजी ने इस शास्त्र निर्देशन के अनुसार ही अपने पूरे जीवन को ज्ञान की साधना में लगाया।
अपनी आयु के ७९वें वर्ष में आप दिवंगत हुए । उनका अभाव अपूरणीय है। परमात्मा से प्रार्थना है कि भज्यमान पर्याय से च्यूत होकर, शीघ्र नर पर्याय पाकर, अमिट पुरुषार्थ को धारण कर, अक्षय चारित्र के रथ पर चढ़ कर शीघ्र ही अनन्त तथा अक्षय सुख के अनन्त काल भोगी हों।
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