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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
चारप्रकृतिक उदयस्थान होता है। दोनों के अवस्थित उदय का काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं है। एक अन्तर्मुहूर्त के बाद ४ प्रकृतिक स्थान से भुजगार होकर पांचप्रकृतिक उदयस्थान हो जायगा । पुनः एक अन्तर्मुहूतं पश्चात् ५ के बजाय अल्पतर होकर ४ का उदय हो जायगा । सुप्त व जागृत अवस्था का जघन्य काल १ समय है । एक समय के लिए जागृत या सुप्त अवस्था हुई तथा फिर सुप्त या जागृत हो गया । वह एक समय की अवस्था छद्मस्थ के पकड़ में नहीं आती, अतः यह प्रतीत होता है कि अमुक जीव या १० घण्टे तक जागृत या सुप्त रहता है। [ अतः ] निद्रासम्बन्धी आपकी शंका ठीक है ।
- पत्राचार 20-7-78/ / जवाहरलाल भीण्डर
कायोत्सर्ग काल की गणित
शंका- एक कायोत्सर्ग का काल कितने मिनट का है ? संध्यासम्बन्धी प्रतिक्रमण में १०८ उच्छ्वास मात्र, प्रभात सम्बन्धी प्रतिक्रमण ५४ उच्छ्वास मात्र, बहुरि अन्य कायोत्सर्ग सत्ताईस उच्छ्वास मात्र कहा है उनका वर्तमान में कितने मिनट या सेकण्ड काल है ?
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समाधान कायोत्सर्ग का काल निश्चित नहीं है। भिन्न-भिन्न समयों के कायोत्सर्ग का काल भिन्न २ है जैसा कि स्वयं शंकाकार ने लिखा है एक उच्छ्वास का काल उ मिनट है। अतः १०८ उच्छ्वास मात्र कायोत्सर्ग का काल हुर्डे X ११ = १ मिनट २२ सेकण्ड, ५४ उच्छ्वास मात्र कायोत्सर्ग का काल ४१ सेकण्ड और २७ उच्छ्वास मात्र कायोत्सर्ग का काल २०३ सेकण्ड है। स्वाध्याय के समय बारह कायोत्सर्ग का काल चार मिनट छह सेकण्ड, वन्दना के समय कायोत्सर्ग काल दो मिनट तीन सेकण्ड, इसी प्रकार प्रतिक्रमणों के कायोत्सर्ग का काल गणित द्वारा निकाल लेना चाहिए ।
- जै. सं. 13-12-56 / VII / सौ. प. का डबका
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परोक्षविनय प्राभ्यन्तर तप है
शंका- परोक्ष विनय का क्या स्वरूप है ?
समाधान - प्राचार्यादि के परोक्ष होने पर भी उनके प्रति अंजलि धारण करना, उनके गुणों का संकीर्तन व अनुस्मरण और मन, वचन, काय से उनकी आज्ञा का पालन करना 'परोक्ष उपचारविनय' है।
- जे. ग. 21-5-64 / 1X / सुरेशचन्द
बाह्यतप नियमरूप होते हैं
शंका--मुनियों के छह बाह्य तप यमरूप होते हैं या नियमरूप ?
समाधान-मुनियों के छह बाह्यतप नियतकाल के लिये होते हैं अर्थात् काल की मर्यादा लिये हुए होते
हैं | जैसे उपवास तप एकदिन दोदिन आदि उत्कृष्ट छहमाह की मर्यादारूप होता है । अत: छह बाह्य तप नियमरूप अर्थात् मर्यादितकाल के लिये होते हैं यमरूप नहीं, किन्तु सल्लेखना इसके लिये अपवाद है।
- जै. ग. 29-7-65/XI / कैलाशचन्द्र
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