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अक्तित्व और कृतित्व ]
मुनि प्रकृति के अनुकूल भोजन करे तथा चबा-चबा कर खावे
शंका- मुनियों को भोजन लेने में अपने स्वास्थ्य की अनुकूलता ध्यान में रखनी चाहिये या नहीं अर्थात् वे जानते हुए भी ऐसा आहार ग्रहण कर लेते हैं क्या जो उनके स्वास्थ्य को हानिकारक हो ?
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समाधान - जो भोजन स्वास्थ्य को हानिकर है, वह अनिष्ट है। समय के पाँच भेदों (सपात, मादक, बहुचात, अनिष्ट, अनुपसेव्य ) में से अनिष्ट भो अभक्ष्य का एक भेद है। अतः मुनियों व गृहस्थ दोनों को ही स्वास्थ्य के लिये हानिकर अनिष्ट आहार का त्याग कर देना चाहिए। रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक ८६ में कहा भी है
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"यनिष्टं तद्वतयेत् । "
संस्कृत टीका- 'पदनिष्टं' उदरशूलादि हेतुतया प्रकृतिसात्म्यकं यन्त्रभवति 'तद्वतयेत्' व्रतं निवृत्ति कुर्यात्
त्यजेदित्यर्थः ।
जो आहार उदरशूल आदि का कारण होने से प्रकृति के अनुकूल नहीं है वह अनिष्ट आहार है, उसको त्याग देना चाहिये ।
शंका- मुनियों को भोजन दाँतों से चबा-चबा कर खाने में कोई दोष तो नहीं है ? या उनको निगलकर ही भोजन करना चाहिये, ऐसा नियम है क्या ?
समाधान-मुनियों को भोजन दाँतों से चबाकर ही करना चाहिये, क्योंकि दांतों द्वारा चबाकर किये हुए भोजन का पाचन ठीक होता है । जो भोजन बिना चबाये निगल लिया जाता है उसका पाचन ठीक प्रकार से नहीं होता है और वह स्वास्थ्य को हानिकर होता है ।
भोजन को चबाते समय जो रसका ( स्वाद का ) ज्ञान होता है उसमें उनको रुचि या प्ररुचि नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इन्द्रियजय मूलगुण है । स्वास्थ्य को अनुकूलता या प्रतिकूलता का ध्यान अवश्य रहना चाहिये तथा ऐसा भोजन करना चाहिये जो संयम व तप में सहायक हो, बाधक न हो। कहा भी है
छयालीस दोष बिना सुकुल, श्रावकत लें तप बढ़ावन हेत नहिं तन, पोषते
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घर अशन को । तजि रसन को ॥
- जै. ग. 23-1-70/ VII / र. ला. जैन, मेरठ
क्या मुनि या अन्य जन ८-१० घन्टे तक निद्रा ले सकते हैं ?
शंका- मुमि निद्रा का काल जो आपने बताया, क्या इसी तरह आगम में मिनट सेकण्डों में आता है ? लोग तो ८-१० घण्टे तक जागृत या सुप्त नजर आते हैं। फिर आपका कथन किस प्रकार समझना चाहिए ?
समाधान - मैंने मिनट सेकण्ड में जो सुप्तावस्था का काल लिखा है वह एक ROUGH IDEA है | आगम में मिनट सेकण्ड श्रादि में समय नहीं दिया गया है । अन्तर्मुहूर्त को ४८ मिनट और उच्छवास को सेकण्ड मानकर अल्पबहुत्व को दृष्टि में रखते हुए गणनाएँ की गई थी। घवल १० १५ पृ० ६१ ६२ व ६८ के कथनानुसार कोई भी जीव निद्राओं में परिवर्तन होने पर भी एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक सुप्त या जागृत नहीं रह सकता, यह ध्रुव सत्य है, क्योंकि सुप्तावस्था में दर्शनावरण का ५ प्रकृतिरूप उदयस्थान है और जागृत अवस्था में
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