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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
श्राहार-विहार के समय सप्तमगुणस्थान सम्भव
शंका- छठे गुणस्थानवर्ती संयमी के ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए दृष्टि युगप्रमाण सामने के मार्ग पर रहती है । तब उपयोग भी जीवरक्षा तथा मार्ग देखने में रहता है । जब आहार ग्रहण करते हैं तब उपयोग भी एषण समितिरूप रहता है। ऐसी स्थिति में सातवाँ गुणस्थान कैसे संभव है ? सातवांगुणस्थान हो जाने पर उपयोग अन्यत्र चला जाने से जो उपयोगशून्य बाह्य क्रिया होंगी क्या वे समितिरूप हो सकती हैं ? सातवेंगुणस्थान में बसाता की उदीरणा के अभाव में आहारसंज्ञा नहीं होती तब आहारसंज्ञारूप कारण के अभाव में आहार ग्रहणरूप कार्य कैसे होगा ?
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समाधान- - छठे और सातवेंगुणस्थान का काल बहुत अल्प है । धवल पुस्तक ६ पृ० ३३५ से ३४२ तक जो काल सम्बन्धी ६७ पदों का अल्पबहुत्व दिया गया है उसमें ३१ नम्बर पर 'क्षुद्रभव' पड़ा हुआ जो उच्छ्वास के अठारहवें भागप्रमाण अथवा पौन सेकेंड के अठारहवें भागप्रमाण है । इससे आगे ४६ नम्बर पर 'दर्शनमोहनीय का उपशान्तकाल' है और ५५ नम्बर पर 'अन्तर्मुहूर्त' है । अल्पबहुत्व के अनुसार द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शनका काल लगभग पाँच सेकेंड नाता है । पृ० २९२ पर कहा है कि 'द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर सहस्रों बार अप्रमत्त से प्रमत्त और प्रमत्त से अप्रमत्तगुणस्थान में जाकर, कषायों के उपशमाने के लिये अधः प्रवृत्तकरण परिणामों से परिणमता है ।' छठेगुणस्थान से सातवेंगुणस्थान का काल श्राधा होता है ( धवल पु० ३ पृ० ९० ) । इसप्रकार सातवेंगुणस्थान का काल एक सैकेंड के हजारवेंभाग से भी कम होता है ।
हाथ में रखे हुए ग्रास को देख लेने के पश्चात् जिस समय मुनि उस ग्रास को मुख में रखकर चबाता है उस समय सातवाँ गुणस्थान हो जाने में कोई बाधा नहीं, क्योंकि उस समय न तो एषणासमिति के लिये कोई कार्य है और न प्रहार संज्ञा है, क्योंकि इनका कार्य तो उससे पूर्व समाप्त हो चुका था। मुख में रखे हुए ग्रास को चबाते समय प्रहार ग्रहण की क्रिया नहीं हो रही है जिसके लिये आहार संज्ञा की आवश्यकता हो । इसीप्रकार चार हाथप्रमाण पृथिवी को देख लेने के पश्चात् गमन करते हुए साधु के अपना पैर आगे रखते समय सातवाँगुणस्थान होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि उससमय ईर्यासमिति के लिये कोई कार्य नहीं है ।
यदि क्रिया के समय सातवगुणस्थान स्वीकार न किया जावे तो परिहारशुद्धिसंयत के भी श्रप्रमत्तसंयतसातवेंगुणस्थान के अभाव का प्रसंग आ जाने पर आगम से विरोध आ जायगा । धवल पु० १ पृ० ३७५ सूत्र १२६ में कहा है 'परिहारशुद्धिसंयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होता है।' इसकी टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने आठवें प्रादि गुणस्थानों का निषेध करते हुए कहा है- " गमनागमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करने वाला नहीं । इसलिये ऊपर के आठवें प्रादि गुणस्थानों में परिहार शुद्धि-संयम नहीं बन सकता । यद्यपि आठवें आदि गुणस्थानों में परिहारऋद्धि पाई जाती है, परन्तु वहाँ पर परिहार करनेरूप उसका कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिये आठवेंआदि गुणस्थानों में परिहारशुद्धिसंयम का अभाव कहा गया है।"
यदि यह स्वीकार कर लिया जावे कि आहार व बिहार के समय सातवाँगुणस्थान नहीं होता तो आहार व विहार करते हुए मुनि के प्रमत्तसंयत छठे गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने पर पांचवें या चौथे गुरणस्थान में प्रवेश करना अनिवार्य हो जायगा। ऐसा होने से वह मुनि ही नहीं रहेगा। अतः आहार व बिहार के समय भी अप्रमत्तसंयत- सातवगुणस्थान हो सकता है यह आगम तथा युक्ति से सिद्ध है ।
- जै. ग. 27-6-63 / IX / मो. ला. सेठी
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