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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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निश्चित हुआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्यअप्रत्याख्यान और द्रव्यप्रप्रतिक्रमण का कर्तृत्व के निमित्तरूप का उपदेश निरर्थक ही होगा, और वह निरर्थक होने पर एक ही आत्मा को रागादिभावों का निमित्तत्त्व आ जायगा, जिससे नित्य-कर्तृत्व का प्रसंग आ जाने से मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा । इसलिये परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त हो, श्रौर ऐसा होने पर यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादिका प्रकारक ही है । तथापि जब तक निमित्तभूत परद्रव्य का प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण नहीं करता तब तक नैमित्तिकभूत रागादिभावों का प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण नहीं करता । १"
इन आर्ष वाक्यों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्यप्रत्याख्यानपूर्वक ही भावप्रत्याख्यान हो सकता है, क्योंकि निमित्तभूत कारणों के त्याग के बिना नैमित्तिकभूत भावों का त्याग नहीं हो सकता है ।
द्रव्यप्रत्याख्यान से उत्पन्न हुआ जो मुनिलिंग है वह द्रव्यलिंग है और भावप्रत्याख्यान से उत्पन्न हुला जो मुनिलिंग वह भावलिंग है । द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग उत्पन्न नहीं हो सकता है । इसीलिये श्री कुंदकुंद भगवान ने सूत्रप्रामृत गाथा २० में " णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदरिणज्जो य ।। " इन शब्दों द्वारा यह कहा है निर्ग्रन्थता (नग्नता ) मोक्षमार्ग है और वही वन्दनीय है । इसी बात को पुनः गाथा २३ में 'जग्गो विमोक्खमग्गो' अर्थात् नग्नता मोक्षमार्ग है, इन शब्दों द्वारा कहा है ।
कार ने मुनि के दो भेद किये हैं- द्रव्यलिंगी व भावलिंगी । जिसको शंकाकार भावलिंगी मुनि कहना चाहता है वह द्रव्यलिंगी मुनि भी अवश्य है, क्योंकि द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग नहीं हो सकता । सम्यग्दष्टि के द्रव्यलिंग के होने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय के अभाव में भावलिंग होता है । जो सम्यग्दृष्टि बाह्यवस्तु का त्याग कर देने से द्रव्यलिंगी मुनि तो हो गया, किन्तु प्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क के उदय का प्रभाव न होने से अथवा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय का अभाव न होने से भावलिंग नहीं हुआ वह सम्यग्दष्टि मात्र द्रव्यलिंगीमुनि है । मिथ्यादृष्टि के तो निरंतर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय रहता है अत: मिध्यादृष्टि के द्रव्यलिंग के सद्भाव में भी भावलिंग नहीं होता, इसी कारण वह मिध्यादृष्टि भी मात्र द्रव्यलिंगी है। इसलिए १ से ५ गुणस्थानवाले जीव द्रव्यलिंगी मुनि हो सकते हैं। विशेष के लिए गोम्मटसार को संस्कृत टीका देखनी चाहिये ।
एक सम्यग्दृष्टिजीव भावलिंगी मुनि है किन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय हो जाने से अथवा श्रप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय से अथवा अनन्तानुबन्धीकषाय व मिथ्यात्वादि के उदय से भावलिंग नष्ट हो गया और मात्र द्रव्यलिंगी मुनि हो गया, किन्तु अतिशीघ्र उपर्युक्त प्रकृतियों के उदय का अभाव हो जाने से पुनः भावलिंगी मुनि हो गया ।
१. आत्मात्मना रागादिनामकारक एव अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्वैविध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्य भावभेदेन द्विविधोपदेशः स द्रव्यभावयोर्निमित्त-नमित्तिक- भावं प्रथयन् कर्तृ त्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं परद्रव्यं निमित्त नैमित्तिका आत्मनो राजादिभावाः यद्येवं नेष्यते तदा द्रव्यातिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एवं स्थात् । तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्तों नित्य कर्तृ ' त्यानुषंगान्मोक्षाभाव: प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथासति तु रागादिनामकारक एवात्मा, तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च तावन्नैमित्तिकभूत-भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च ।
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