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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इसीप्रकार एक मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगीमुनि सम्यक्त्वोत्पत्ति के साथ-साथ अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणकषायोदय का प्रभाव हो जाने से भावलिंगी मुनि हो गया, किन्तु अतिशीघ्र उपयुक्त कषायों का तथा मिथ्यात्वादि का उदय हो जाने से पुन: मिथ्याष्टिद्रव्यलिंगी हो गया।
अतः कौन मुनि किस समय मात्र द्रव्यलिंगी और भावलिंगी है यह मति-श्र तज्ञान द्वारा जानना कठिम है।
-जे. ग. 15-10-64/IX/ र. ला. जैन, मेरठ शंका-द्रव्यलिंगी मुनि पहले से पांचवेगुणस्थानवर्ती होते हैं, इसका क्या प्रमाण है ? समाधान-णरतिरिय देस अयदा उक्कस्सेणच्चदोत्ति णिग्गंथा।
ण य अयद देसमिच्छा गेवेज्जतोत्ति गच्छति ॥५४॥ त्रिलोकसार
अर्थ-असंयत व देशसंयत मनुष्य या तिथंच उत्कृष्टपने अच्युतकल्पपर्यंत जाय हैं। द्रव्य करि निय और भावकरि असंयत व देशसंयत व मिथ्याष्टि मनुष्य ते उपरिमग्र वेयक पर्यंत जाय है तातै ऊपरि नाहिं जाय है।
-जें. ग. 19-12-66/VIII/र. ला. न क्षायिक सम्यक्त्वी संयमी छठे में भी रहता है शंका-श्री समयसारजो में आता है कि जिसे क्षायिकसम्यग्दर्शन पांचवेंगुणस्तान में हो जाता है वह छठे माणस्थान में नहीं आता, सीधा सातवेंगुणस्थान में भावलिंग धारण करता है। क्या इसका तात्पर्य यह है कि छठा गुणस्थान द्रव्यलिंग का ही है। जितनी देर सातवेंगुणस्थान में रहता है वह भावलिंग है अन्यथा प्रयलिंग है। द्रव्यलिंग का निषेध क्यों किया जाता है ? समाधान-द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग नहीं हो सकता है । कहा भी है
द्रयलिंग समास्थाय मालिंगो भवेद्यतिः।। विना तेन न वन्द्यः स्यान्नानावतधरोऽपि सन् ॥१॥ द्रयलिंगमिदं ज्ञेयं मावलिगस्य कारणं । तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः ॥२॥ मुद्रा सर्वज्ञ मान्या स्थानिमुद्रो नैव मान्यते ।
राजमुद्राधरोऽत्यन्तहीनषच्छास्त्रनिर्णयः ॥३॥ "यलिगे सति भावं विना परमार्थ-सिद्धिर्न भवति तेन कारणेन द्रव्यलिगं परमार्थसिद्धिकरं न भवति
प्रापयति. तेन कारणेन वलिंगपूर्वकं भावलिंग धर्तव्यमिति भावार्थः ये तु ग्रहस्थवेषधारिणोऽपि वयं भावलिगिनो वर्तामहे दीक्षायामन्तर्भावत्वात्ते मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या विशिष्टजिनलिंगविदुषित्वातू, योदधुमिच्छवः कातरवत्स्वयं नश्यन्ति, अपरागपि नाशयन्ति, ते मुख्यव्यवहारधर्मलोपकत्वावशिष्टदण्डनीयाः।" अष्टपाहुड पृ. २०७
श्री पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य कृत अर्थ-मुनि द्रयलिंग धारणकर भावलिंगी होता है, क्योंकि नामावत धारण करने पर भी मुनि द्रव्यलिङ्ग के बिना वन्दनीय नहीं है, नमस्कार करने के योग्य नहीं है ॥शा मध्यलिडको भावलिङ्ग का कारण जानना चाहिये, क्योंकि भावलिङ्ग आत्मा के भीतर होने से स्पष्ट ही नेत्रों का विषय नहीं है ॥२॥ सब जगह मुद्रा मान्य होती है, मुद्रा हीन मनुष्य की मान्यता नहीं होती। जिस प्रकार
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